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सम्पादन-निर्देशन में तथा पं. कन्हैयालालजी म. 'कमल', पं. देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री, श्री रतनमुनिजी म. एवं पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल जैसे विद्वद्वर्य सम्पादकमण्डल के तत्त्वावधान में प्रज्ञापनासूत्र का प्रस्तुत अभिनव संस्करण अनुवादित एवं सम्पादित किया गया है।
प्रज्ञापनासूत्र के इस संस्करण की यह विशेषता है कि इसमें श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बई से प्रकाशित 'पण्णवणासुत्त' के शुद्ध मूलपाठ का अनुसरण किया गया है। इससे यह लाभ हुआ कि सूत्र संख्या छत्तीस पदों की क्रमशः दी गई है। प्रत्येक सूत्र में प्रश्न को अलग पंक्ति में रखा गया है, उत्तर अलग पंक्ति में। तथा प्रत्येक प्रकरण के शीर्षक-उपशीर्षक पृथक्-पृथक् दिये गए हैं, जिससे पाठक को प्रतिपाद्य विषय को ग्रहण करने में आसानी रहे। प्रत्येक परिच्छेद का मूलपाठ देने के पश्चात् सूत्र-संख्या के क्रम से उसका भाववाही अनुवाद दिया गया है। जहां कठिन शब्द हैं या मल में संक्षिप्त शब्द हैं. वहां कोष्ठक में उनका सरल अर्थ तथा पूरा भावार्थ भी दिया गया है, ताकि पाठक को पिछले स्थलों को टटोलना न पड़े। शब्दार्थ के पश्चात् विवेच्यस्थलों का विवेचन दिया गया है। विवेचन प्रायः आचार्य मलयगिरि रचित वृत्ति को ध्यान में रखकर किया गया है। वृत्ति का पूरा का पूरा अनुसरण नहीं किया गया है। जहां वृत्ति में अतिविस्तार है, या प्रासंगिक विषय से हट कर चर्चा की गई है, वहाँ उसे छोड़ दिया गया है। मूल के शब्दार्थ में जो बात स्पष्ट हो गई है या स्पष्ट है, उसका विवेचन में पिष्टपेषण नहीं किया गया है। जहां मूलपाठ अतिविस्तृत एवं पुनरक्त है, वहां विवेचन में उसका निष्कर्षमात्र दे दिया गया है। कहीं-कहीं मूलपाठ में उक्त विषयवस्तु को विवेचन में युक्ति-हेतुपूर्वक सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। विवेचन में प्रतिपादित विषय एवं उद्धृत प्रमाणों के सन्दर्भस्थलों का उल्लेख टिप्पण में कर दिया गया है। कहीं-कहीं तत्त्वार्थसूत्र, जीवाभिगम, भगवती, कर्मग्रन्थ आदि तथा बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों के तुलनात्मक टिप्पण भी दिए गए हैं।
प्रत्येक पद के प्रारम्भ में प्राथमिक अर्थ देकर पद में प्रतिपादित समस्त विषयों की समीक्षा की गई है, जिससे पाठक को समग्र पद का हार्द मालूम हो सके। पुररुक्ति से बचने के लिए जहाँ 'जाव' 'जहा' 'एवं' आदि आगमिक पाठों के संक्षेपसूचक शब्द हैं, उनका स्पष्टीकरण प्रायः शब्दार्थ में ही दे दिया गया है। कहीं-कहीं मूलपाठ के नीचे टिप्पण में स्पष्टीकरण कर दिया गया है। प्रज्ञापना विशालकाय शास्त्र होने से हमने इसे तीन खण्डों में विभाजित कर दिया है। अन्त में, तीन परिशिष्ट देने का विचार है। एक परिशिष्ट में सन्दर्भ-ग्रन्थों की सूची, दूसरे परिशिष्ट में विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों की सूची और तीसरे में स्थलविशेष की सूची होगी।
कृतज्ञता-प्रकाश
प्रस्तुत सम्पादन में मूलपाठ के निर्धारण एवं प्राथमिक-लेखन में आगम प्रभाकर स्व. पुण्यविजयजी म., पं. दलसुखभाई मालवणिया एवं पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक द्वारा सम्पादित पण्णवणासुत्तं, भाग १-२ का उपयोग किया गया है तथा अर्थ एवं विवेचन में प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति एवं प्रमेयबोधिनी टीका
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