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द्वितीय स्थानपद]
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उववाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोगस्स असंखेजइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति। तं जहा
असुरा १ नाग २ सुवण्णा ३ विज्जू ४ अग्गी य ५ दीव ६ उदही य ७। दिसि ८ पवण ९ थणिय १० नामा दसहा एए भवणवासी॥ १३७॥
चूडामणिमउडरयण १-भूसणनिउत्तणागफड २-गरुल ३-वइर ४-पुण्णकलसविउप्फेस ५सीह ६-मगर ७-गयअंक ८-हयवर ९-वद्धमाण १०-निजुत्तचित्तचिंधगता सुरूवा महिड्डीया महज्जुतीया महायसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडग-तुडियर्थभियभुया अंगद-कुंडल-मट्ठ-गंडतल कण्णपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमाला-मउलीमउडा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेण फासेणं दिव्वेणं संघयणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुतीए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेण तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा।
ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसगाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिवतीणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महयरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महत्ताहतनट्ट-गीत-वाइततंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुयंग-पडुप्पवाइयरवेण दिव्वाइं भोग-भोगाइं भुंजमाणा विहरंति।।
[१७७ प्र.] भगवन्! पर्याप्त और अपर्याप्त भवनवासी देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भवनवासी देव कहाँ निवास करते हैं ?
[१७७ उ.] गौतम! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन (प्रदेश) अवगाहन (पार) करके और नीचे भी एक हजार योजन छोड़ कर बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन में भवनवासी देवों के सात करोड़, बहत्तर लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है।
वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्र (चौकोर), तथा नीचे पुष्कर (कमल) की कर्णिका के आकार के हैं। (उन भवनों के चारों ओर) गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएँ खुदी हुई होती हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट (प्रतीत होता) है। (यथास्थान) प्राकारों (परकोटों), अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से (वे भवन) सुशोभित हैं। (तथा वे भवन) विविध यन्त्रों व शतघ्नियों (महाशिलाओं या महायष्टियों), मूसलों, मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से चारों और वेष्टित (घिरे हुए) होते हैं; तथा वे शत्रुओं द्वारा अयोध्य (युद्ध न कर सकने योग्य), सदाजय (सदैव जयशील), सदागुप्त (सदैव सुरक्षित) एवं अड़तालीस कोठों (प्रकोष्ठों - कमरों) से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय