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द्वितीय स्थानपद ]
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नारकों की शरीररचना, प्रकृति और परिस्थति • वे रंग के काले -कलूटे और भयंकर होते हैं। उनके शरीर से काली प्रभा निकलती है । उनको देखने मात्र से रोमांच हो जाता है, अथवा वे दूसरे नारकों में अत्यन्त भय उत्पन्न करके रोमांच खड़ा कर देते हैं। इस कारण वे अत्यन्त आतंक पैदा करते रहते हैं। तथा वे सदैव भयभीत, त्रस्त, आतंकित, उद्विग्न रहते हैं, तथा सतत अनिष्ट नरकभय का अनुभव करते रहते हैं ।
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों के स्थानों की प्ररूपणा
१७५. कहि णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा! उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए१, अहोलोए तदेक्कदेसभाए २, तिरियलोए अगडे तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु पल्ललेसु चिल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु ३, एत्थ णं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस असंखेज्जइभागे ।
[१७५ प्र.] भगवन्! पर्याप्त और अपर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यंचों के स्थान कहाँ ( - कहाँ) कहे गए हैं?
[१७५ उ.] गौतम ! १. ऊर्ध्वलोक में उसके एकदेशभाग में, २. अधोलोक में उसके एकदेशभाग में, ३ . तिर्यग्लोक में कुओं में, तालाबों में नदियों में, वापियों में, द्रहों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जलस्रोतों में, झरनों में, छोटे गड्ढो में, पोखरों में, क्यारियों अथवा खेतों में, द्वीपों में, समुद्रों में तथा सभी जलाशयों एव जल के स्थानों में; इन (सभी पूर्वोक्त स्थलों) में पंचेन्दियतिर्यञ्चों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । विवेचन • पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के स्थानों की प्ररूपणा
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प्रस्तुत सूत्र (सू. १७५) में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है। इसमें प्रयुक्त शब्दों का स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है।
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मनुष्यों के स्थानों की प्ररूपणा
१७६. कहि णं भंते! मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा ! अंतोमणुस्सखेत्ते पणतालीसाए जोयणसतसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीव - समुद्देसु १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ८०-८१ का सारांश