SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय स्थानपद ] १६५. कहि णं भंते ! चउरिं दियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए १, अहोलोए तदेक्कदेसभाए २, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु ३ । [ १४३ एत्थ णं चउरिंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पन्नता । उववाणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [१६५ प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं? [१६५ उ.] गौतम ! १. (वे) उर्ध्वलोक में — उसके एकदेशभाग में (होते हैं), २. अधोलोक में— उसके एकदेशभाग में ( होते हैं ), ३. तिर्यग्लोक में— कूपों में, तालाबों में, नदियों में, हृदों में, वापियों में, पुष्करणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसरपंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जलस्रोतों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, वप्रों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में और समस्त जलाशयों में तथा सभी जलस्थानों में होते हैं)। इन ( पूर्वोक्त सभी स्थलों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से― (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से—लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे ) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं) । १६६. कहि णं भंते! पंचिंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्डलोए तदेक्कदेसभाए १, अहोलोए तदेक्कदेसभाए २, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलाससु जलट्ठाणेसु ३, एत्थ णं पंचेंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । [१६६ प्र.] भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ?
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy