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[प्रज्ञापना सूत्र
उववाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे।
[१६३ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं?
[१६३ उ.] गौतम ! १. ऊर्ध्वलोक में—उसके एकदेशभाग में (वे) होते हैं, २. अधोलोक मेंउसके एकदेशभाग में (होते हैं), ३. तिर्यग्लोक में-कुओं में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों (बावड़ियों) में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जलप्रवाहों में, निर्झरों में, तलैयों में, पोखरों में, वों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में और सभी जलाशयों में तथा समस्त जलस्थानों में द्वीन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, समुद्घात की अपेक्षा से ( भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।
१६४. कहि णं भंते ! तेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए १, अहोलोए तदेक्कदेसभाए २, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु ३, एत्थ णं तेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता।
उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे।
[१६४ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त त्रीन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं?
[१६४ उ.] गौतम ! १. ऊर्ध्वलोक में उसके एकदेशभाग में (होते हैं), २. अधोलोक मेंउसके एकदेशभाग में (होते हैं), ३. तिर्यग्लोक में—कुंओं में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर-पक्तियों में, बिलों में, बिलपंक्तियों में, पर्वतीय जलप्रवाहों में, निर्झरों में, तलैयों (छोटे गड्ढों) में, पोखरों में, वप्रों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में और सभी जलाशयों में तथा समस्त जलस्थानों में, इन (सभी स्थानों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से—(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।