SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय स्थानपद] [१३९ - विवेचन-वायुकायिकों के स्थानों का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १५७ से १५९ तक) में वायुकायिक जीवों के बादर, सूक्ष्म और उनके पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों के स्थानों का निरूपण तीनों अपेक्षाओं से किया गया है। 'भवणछिद्देसु' 'भवणणिक्खुडेसु' आदि पदों के विशेषार्थ-भवणछिद्देसु-भवनपतिदेवों के भवनों के छिद्रों-अवकाशान्तरों में। 'भवणणिक्खुडेसु'-भवनों के निष्कुटों अर्थात् गवाक्ष आदि के समान भवनप्रदेशों में। णिरयणिक्खुडेसु-नरकों के निष्कुटों यानी गवाक्ष आदि के समान नरकावास प्रदेशों में। पर्याप्त बादरवायुकायिक : उपपात आदि तीनों की अपेक्षा से-ये तीनों की अपेक्षा से लोक के असंख्यात भागों में हैं; क्योंकि जहाँ भी खाली जगह है-पोल है, वहाँ वायु बहती है। लोक में खाली जगह (पोल) बहुत है। इसलिए पर्याप्त वायुकायिक जीव बहुत अधिक हैं। इस कारण उपपात समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से बादर पर्याप्तवायुकायिक लोक के असंख्येय भागों में कहे हैं। अपर्याप्त बादरवायुकायिकों के स्थान-उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से अपर्याप्त बादरवायुकायिक जीव सर्वलोक में व्याप्त हैं; क्योंकि देवों और नारकों को छोड़ कर शेष सभी कार्यों से जीव बादर अपर्याप्तवायुकायिकों में उत्पन्न होते हैं। विग्रहगति में भी बादर अपर्याप्तवायुकायिक पाए जाते हैं तथा उनके बहुत-से स्वस्थान हैं। अतएव व्यवहारनय की दृष्टि से भी उपपात को लेकर बादर पर्याप्त-अपर्याप्तवायुकायिकों की सकललोकव्यापिता में कोई बाधा नहीं है। समुद्घात की अपेक्षा से उनकी समग्रलोकव्यापिता प्रसिद्ध ही है; क्योंकि समस्त सूक्ष्म जीवों में और लोक में सर्वत्र वे उत्पन्न हो सकते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से बादर-अपर्याप्तवायुकायिकजीव लोक के असंख्येयभागों में होते हैं, यह पहले बतलाया जा चुका है। वनस्पतिकायिकों के स्थानों का निरूपण १६०. कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सट्ठाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदहिवलएसु १। अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु २।, उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु ३। तिरियलोए अगडेसु तडागेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु ४। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक. ७८ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ७८
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy