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[ प्रज्ञापना सूत्र
[१५७ प्र.] भगवन् ! बादर वायुकायिक- पर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [१५७ उ.] १ – गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनवातों में, सात घनवातवलयों में, सात वातों में और सात तनुवातवलयों में (वे होते हैं)।
२. अधोलोक में - पातालों में, भवनों में, भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, भवनों के छिद्रों में, भवनों के निष्कुट प्रदेशों में नरकों में, नरकावलियों में, नरकों के प्रस्तटों में, छिद्रों में और नरकों के निष्कुट - प्रदेशों में (वे हैं) ।
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३. उर्ध्वलोक में - (वे) कल्पों में विमानों में, आवली (पंक्ति) बद्ध विमानों में विमानों के प्रस्तटों (पाथड़ों-बीच के भागों) में विमानों के छिद्रों में विमानों के निष्कुट - प्रदेशों में ( हैं ) ।
४. तिर्यग्लोक में - ( वे) पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में समस्त लोकाकाश के छिद्रों में, तथा लोक के निष्कुट - प्रदेशों में, इन ( पूर्वोक्त सभी स्थलों) में बादर वायुकायिक- पर्याप्तक जीव के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से-लोक के असंख्येयभागों में, समुद्घात की अपेक्षा से - लोक के असंख्येयभागों में, तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्येयभागों में (बादर वायुकायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान हैं।
१५८. कहि णं भंते अपज्जत्तबादरवाउकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ?
गोयमा ! जत्थेव बादरवाउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाण तत्थेव बादरवाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ।
उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु । [१५८ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त - बादर - वायुकायिकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [१५८ उ.] गौतम ! जहाँ बादर - वायुकायिक- पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं बादर- वायुकायिकअपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से (वे) सर्वलोक में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से - ( वे) सर्वलोक में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यात भागों में हैं ।
१५९. कहि णं भंते ! सुहुमवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पत्रत्ता ? गोयमा ! सुहुमवाउकाइया जे य पज्जत्तगा जे ये अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो !
[१५९ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मवाायुकायिकों के पर्याप्तों और अपर्याप्तों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [१५९ उ.] गौतम ! सूक्ष्मवायुकायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, अविशेष (विशेषता या भेद से रहित ) हैं, नानात्व से रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणों! वे सर्वलोक में परिव्याप्त हैं ।