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द्वितीय स्थानपद : प्राथमिक ]
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'एकेन्द्रिय जीव समग्र लोक में परिव्याप्त हैं' इस कथन का अर्थ केवल एक एकेन्द्रिय जीव से नहीं, अपितु समग्ररूप से सामान्य रूप से एकेन्द्रिय जाति से है। तथा तीन स्थानों का पृथक्-पृथक् कथन न करके तीनों स्थान समग्ररूप से समझना चाहिए । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव समग्र लोक में नहीं, किन्तु लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। सामान्य पंचेन्द्रियों का स्थान भी लोक के असंख्यातवें भाग में है, किन्तु विशेषपंचेन्द्रिय के रूप में नारकों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों एवं देवों के पृथक्-पृथक् सूत्रों में उन-उनके स्थानों का पृथक्-पृथक् निर्देश है। सिद्ध लोक के अग्रभाग में हैं ।
1 जीवभेदों के अनुसार स्थान निर्देश इस क्रम से किया गया है— (१) पृथ्वीकायिक (बादर - सूक्ष्म, पर्याप्त - अपर्याप्त), (२) अप्कायिक (पूर्ववत्), (३) तेजस्कायिक (पूर्ववत्), (४) वायुकायिक (पूर्ववत्) (५) वनस्पतिकायिक (पूर्ववत्), (६) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय (पर्याप्त-अपर्याप्त), (७) पंचेन्द्रिय (सामान्य), (८) नारक ( सामान्य, पर्याप्त - अपर्याप्त), (९) प्रथम से सप्तस नरक तक (पर्याप्त-अपर्याप्त), (१०) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च (पूर्ववत्), (११) मनुष्य (पूर्ववत्), (१२) भवनवासी देव (पर्याप्त-अपर्याप्त), (१३) असुरकुमार आदि दस भवनवासी (दक्षिणात्य, औदिच्य, पर्याप्त - अपर्याप्त), (१४) व्यन्तर ( पर्याप्त - अपर्याप्त), (१५) पिशाचादि ८ व्यन्तर ( दक्षिण-उत्तर के, पर्याप्त - अपर्याप्त), (१६) जोतिष्कदेव, (१७) वैमानिकदेव, (१८) सौधर्म से अच्युत तक, (पर्याप्त-अपर्याप्त), (१९) ग्रैवेयकदेव ( पर्याप्त - अपर्याप्त), (२०) अनुत्तरौपपातिकदेव (पर्याप्तअपर्याप्त) और (२१) सिद्ध । २
१. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १, पृ. ४६ से ८० तक (ख) पण्ण्वणसुत्तं पद दो की प्रस्तावना भा. २, पृ. ४९-५०
(ग) उत्तराध्ययन अ. ३६, गा. 'सुहुमा सव्वलोगमि'
२. पण्ण्वणासुत्तं (मूलपाठ) विषयानुक्रम, पृ. ३१