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________________ में प्रज्ञापना का है।" बल्कि भगवतीसूत्र में यत्र-तत्र अनेक स्थलों में 'जहा पण्णवणाए' कह कर प्रज्ञापनासूत्र के १, २, ५, ६, ११, १५, १७, २४, २५, २६, और २७ वें पद से प्रस्तुत विषय की पूर्ति करने हेतु सूचना दी गई है यह प्रज्ञापना की विशेषता है। इसके अतिरिक्त प्रज्ञापना उपांग होने पर भी भगवती आदि का सूचन इसमें क्वचित् ही किया गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि प्रज्ञापना में जिन विषयों की चर्चा की गई है, उन विषयों का इसमें सांगोपांग वर्णन है। इस पर से प्रज्ञपनासूत्र की गहनता और व्यापक सिद्धान्तप्ररूपणा स्पष्टतः परिलक्षित होती है ।" इसके अतिरिक्त पंचम अंगशास्त्र व्याख्याप्रज्ञप्ति का 'भगवती' विशेषण है । इसी प्रकार प्रस्तुत उपांगशास्त्र प्रत्येक पद की समाप्ति पर 'पण्णवणाए भगवईए' ७ कह कर प्रज्ञापना के लिए भी भगवती विशेषण प्रयुक्त किया गया है । यह विशेषण 'प्रज्ञापना' की महत्ता का सूचक है। कहा जाता है कि भगवान् महावीर के पश्चात् २३ वें पट्टधर भगवान् आर्यश्याम पूर्वश्रुत में निष्णात थे । १° उन्होंने प्रज्ञापना की रचना में अपनी विशिष्ट कलाकुशलता प्रदर्शित की, जिसके कारण अंग और उपांग में उन विषयों की विशेष जानकारी के लिए 'प्रज्ञापना' के अवलोकन का सूचन किया गया है। प्रज्ञापना का अर्थ 'प्रज्ञापना' क्या है? इसके उत्तर में स्वयं शास्त्रकार ने बताया है—'जीव और अजीव के सम्बन्ध में जो प्ररूपणा है, वह 'प्रज्ञापना' है । ११ प्रस्तुत आगम के प्रसिद्ध वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि के अनुसार 'प्रज्ञापना' शब्द के प्रारम्भ में जो 'प्र' उपसर्ग है, वह भगवान् महावीर के उपदेश की विशेषता सूचित करता है । १२ अर्थात् — जीव, अजीव आदि तत्वों का जो सूक्ष्म विश्लेषण सर्वज्ञ भगवान् महावीर ने किया है, उतना सूक्ष्म विश्लेषण उस युग के किन्ही अन्यतीर्थिक धर्माचार्यों के उपदेश में उपलब्ध नहीं होता । प्रज्ञापना का आधार आचार्य मलयगिरि ने इस आगम को समवायांगसूत्र का उपांग १३ बताया है। उसका कारण यह प्रतीत ७. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. २, पृ. ८४ ८. जैन आगम - साहित्य, मनन और मीमांसा पृ. २३० - २३१ ९. 'पण्णवणासुत्त' भा. २ प्रस्तावना १०. (क) जैन - आगमसाहित्य मनन और मीमांसा पृ. २३१ (ख) प्रज्ञापना. मलय वृत्ति, पत्रांक ७२, ४७, ३८५ (ग) सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवान् आर्यश्याम उपदिष्टवान् प्रज्ञापना, पृ. ३८५ ११. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) पृ. १ १२. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति पत्रांक १-२ १३. इदं च समवायाख्यस्य चतुर्थांगस्योपांगम् तदुक्तार्थप्रतिपादनात् । — प्रज्ञापना. म. वृत्ति प. १ [ १९ ]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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