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________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [१११ वाले एवं समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं। उनके चरणों की रचना कच्छप के समान आकार वाली एवं सुन्दर होती है। उनकी दोनों जांघे चिकनी, अल्परोमचुक्त, कुरुविन्द के समान गोल होती हैं। उनके घुटने निगूढ़ और सम्यक्तयाबद्ध होते हैं, उनके उरूभाग हाथी की सूंड के समान गोलाई से युक्त होते हैं, उनका कटिप्रदेश सिंह के समान, मध्यभाग वज्र के समान नाभि-मण्डल दक्षिणावर्त शंख के समान तथा वक्षःस्थल विशाल, पुष्ट एवं श्रीवत्स से लाञ्छित होता है। उनकी भुजाएँ नगर के फाटक की अर्गला के समान दीर्घ होती हैं। हाथ की कलाइयां (मणिबन्ध) सुबद्ध होती हैं। उनके करतल और पगतल रक्तकमल के समान लाल होते हैं। उनकी गर्दन चार अंगुल की, सम और वृत्ताकार शंख-सी होती है। उनका मुखमण्डल शरऋतु के चन्द्रमा के समान सौम्य होता है। उनके छत्राकार मस्तक पर अस्फुटित-स्निग्ध, कान्तिमान एवं चिकने केश होते हैं। वे कमण्डलु, कलश, यूप, स्तूप वापी, ध्वज, पताका, सौवस्तिक, यव, मत्स्य, मगर, कच्छप, रथ, स्थाल, अंशुक, अष्टापद, अंकुश, सुप्रतिष्ठक, मयूर, श्रीदाम, अभिषेक, तोरण , पृथ्वी, समुद्र, श्रेष्ठ भवन, दर्पण, पर्वत, हाथी, वृषभ, सिंह, छत्र और चामर; इन ३२ उत्तम लक्षणों से युक्त होते हैं। वहाँ की स्त्रियाँ भी सुनिर्मित-सर्वांगसुन्दर तथा समस्त महिलागुणों से युक्त होती हैं। उनके चरण कच्छप के आकार के, तथा परस्पर सटी हुई अंगुलियों वाले एवं कमलदल के समान मनोहर होते हैं। उनके जंघायुगल रोमरहित एवं प्रशस्त लक्षणों से युक्त होते हैं, तथा जानुप्रदेश निगूढ़ एवं पुष्ट होते हैं, उनके उरू केले के स्तम्भसंदृश संहत, सुकुमार एवं पुष्ट होते हैं। उनके नितम्ब विशाल, मांसल एवं शरीर के आयाम के अनुरूप होते हैं। उनकी रोमराजि मुलायम, कान्तिमय एवं सुकोमल होती है। उनका नाभिमण्डल दक्षिणावर्त की तरंगों के समान, उदर, प्रशस्त लक्षणयुक्त एवं स्तन स्वर्णकलशसम संहत, उन्नत, पुष्ट एवं गोल होते हैं। पार्श्वभाग भी संगत होता है। उनकी बांहें लता के समान सुकुमार होती हैं। उनके अधरोष्ट अनार के पुष्प के समान लाल, तालु एवं जिह्वा रक्तकमल के समान तथा आंखें विकसित नीलकमल के समान बड़ी एवं कमनीय होती हैं। उनकी भौंहें चढ़ाए हुए धनुषबाण के आकार की सुसंगत होती हैं। ललाट प्रमाणोपत होता है। मस्तक के केश सुस्निग्ध एवं सुन्दर होते हैं। करतल एवं पदतल स्वस्तिक, शंख चक्र आदि की आकृति की रेखाओं से सुशोभित होते हैं । गर्दन ऊँची, मांसल एवं शंख के समान होती हैं। वे ऊँचाई में पुरुषों से कुछ कम होती हैं। स्वभाव से ही वे उदार, श्रृंगार और सुन्दर वेष वाली होती हैं। प्रकृति से हास्य, वचन-विलास एवं विषय में परम नैपुण्य से युक्त होती हैं। वहाँ के पुरुष-स्त्री सभी स्वभाव से सुगन्धित वदन वाले होते हैं। उनके क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त मन्द होते हैं। वे सन्तोषी उत्सुकता रहित, मृदुता-ऋजुतासम्पन्न होते हैं। मनोहर, मणि, स्वर्ण और मोती आदि ममत्व के कारणों के विद्यमान होते हुए भी ममत्व के अभिनिवेश से तथा वैरानुबन्ध से रहित होते हैं। हाथी, घोड़े, गाय, भैंस आदि के होते हुए भी वे उनके परिभोग से पराङ्मुख रह कर पैदल चलते हैं।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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