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प्रथम प्रज्ञापनापद]
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वर्णपरिणत आदि पुद्गलों के भेद तथा उनकी व्याख्या-वर्णपरिणत के ५ प्रकार-वर्णरूप में परिणत, जो पुद्गल हैं, वे ५ प्रकार के हैं—(१) कोई काजल आदि के समान काले होते हैं, वे कुष्णवर्णपरिणत, (२) कोई नील या मोर को गर्दन आदि के समान नीले रंग के होते हैं, वे नीलवर्णपरिणत, (३) कोई हींगलू आदि के समान लाल रंग के होते हैं, वे लोहित (रक्त) वर्णपरिणत, (४) कोई हलदी आदि के समान पीले रंग के होते हैं, वे हारिद्र (पीत) वर्ण-परिणत, (५) शंख आदि के समान कोई पुद्गल श्वेत रंग के होते है, वे शुक्लवर्णपरिणत हैं।
गन्धपरिणत के दो प्रकार-कोई पुद्गल चन्दनादि अनुकूल सामग्री मिलने से सुगन्ध वाले हो जाते हैं, वे सुगन्धपरिणत और कोई लहसुन आदि के समान सामग्री मिलने से दुर्गन्ध वाले हो जाते हैं, वे दुर्गन्धपरिणत हो जाते हैं।
रसपरिणत पुद्गलों के पांच प्रकार—(१) कोई मिर्च आदि के समान तिक्त (तीखे या चटपटे) रस वाले होते हैं, (२) कोई नीम, चिरायता आदि के समान कटुरस वाले होते हैं, (३) कोई हरड आदि के समान कसैले (कषाय) रस वाले होते हैं, (४) कोई इमली आदि के समान खट्टे (अम्ल) रस वाले होते हैं और (५) कोई शक्कर आदि के समान मधुर (मीठे) रस वाले होते हैं।
स्पर्शपरिणत पुद्गलों के आठ प्रकार—(१) कोई पाषाण आदि के समान कठोरस्पर्श वाले, (२) कोई आक की रुई या रेशम के समान कोमल स्पर्श वाले, (३) कोई वज्र या लोह आदि के समान भारी (गुरु स्पर्श वाले) होते हैं, तो (४) कोई पुद्गल सेमल की रुई आदि के समान हलके (लघुस्पर्श वाले) होते हैं। (५) कोई मृणाल, कदलीवृक्ष आदि के समान ठण्डे (शीतस्पर्श वाले) होते हैं, तो कोई (६) अग्नि आदि के समान गर्म (उष्णस्पर्श वाले) होते हैं। (७) कोई घी आदि के समान चिकने (स्निग्धस्पर्श वाले) होते हैं तो (८) कोई राख आदि के समान रूखे (रूक्षस्पर्श वाले) होते हैं।
संस्थानपरिणत के पांच प्रकार-(१) कोई पुद्गल वलय (कड़ा-चूड़ी) आदि के समान परिमण्डलसंस्थान (आकार) के होते हैं, जैसे - 0। (२) कोई चाक, थाली आदि के समान वृत्त (गोल) संस्थान वाले होते हैं, यथा कोई सिंघाड़े के समान तिकोने (त्र्यस्र) आकार के होते हैं, यथा - A। (४) कोई कुम्भिका आदि के समान चौकोर आकर के (चतुरस्रसंस्थान के) होते हैं, यथा - ।। और कोई पुद्गल दण्ड आदि के समान आयत संस्थान के होते हैं, यथा- ।
वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श और संस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध से समुत्पन्न भंगजाल-अब शास्त्रकार पूर्वोक्त वर्णादि से युक्त स्कन्धादिचतुष्टय के पारस्परिक सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाले भंग-जाल की प्ररूपणा करते हैं। अर्थात् प्रत्येक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से परिणत स्कन्धादि पुद्गलों के साथ जब अन्य वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों की अपेक्षा से यथायोग्य सम्बन्ध होता है तब जो भंग (विकल्प) होते हैं, उन्हीं का निरूपण यहाँ किया गया है।