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________________ पण्णवणासुत्तं : प्रज्ञापनासूत्र पढमं पण्णवणापदं प्रथम प्रज्ञापनापद प्राथमिक 0 प्रज्ञापनासूत्र का यह प्रथम पद है, इसका नाम प्रज्ञापनापद है। - इसमें जैनदर्शनसम्मत जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व की प्रज्ञापना—प्रकर्षरूपेण प्ररूपणा-भेद-प्रभेद बता कर की गई है। जीव-प्रज्ञापना से पूर्व अजीव-प्रज्ञापना इसलिए की गई है कि इसमें जीवतत्त्व की अपेक्षा वक्तव्य ___ अल्प है। अजीवों के निरूपण में रूपी और अरूपी, ये भेद और इनके प्रभेद प्रस्तुत किये गए हैं। रूपी में पुद्गल द्रव्य का और अरूपी में धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यों का समावेश हो जाता है। तथा 'अद्धासमय' के साथ 'अस्तिकाय' शब्द जुड़ा हुआ न होने पर भी वह एक स्वतन्त्र अरूपी अजीव कालद्रव्य का द्योतक तो है ही। प्रस्तुत अरूपी अजीव का प्रतिपादन करने के साथ ही यहाँ धर्मास्तिकायादि तीन को देश और प्रदेश के भेदों में विभक्त किया गया है। तत्पश्चात् रूपी अजीव के स्कन्ध से लेकर परमाणु पुद्गल तक मुख्य ४ भेद बता कर उनके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के रूप में परिणत होने पर अनेक प्रभेदों का कथन किया है। साथ ही वर्णादि के परस्पर सम्बन्ध से कुल ५३० भंग होते हैं, उनका निरूपण भी यहाँ किया गया है। शास्त्रकार का आशय यही है कि यों प्रत्येक वर्ण आदि के अनन्त-अनन्त भेद हो सकते हैं। यहाँ मौलिक भेदों का निर्देश करके आगे शास्त्रकार ने इसी शास्त्र के पंचम विशेष-पद में अजीव के पर्यायों तथा तेरहवें परिणामपद में परिणामों का विस्तृत वर्णन किया है। - जीव-प्रज्ञापना में जीव के दो मुख्य भेदों—सिद्ध और संसारी का असंसारसमापन्न और संसार समापन्न नाम से निर्देश किया है। तत्पश्चात् सिद्धों के १५ प्रकार तथा समय की अपेक्षा से सिद्धों का परस्पर अन्तर बताकर मुक्त होने के बाद आत्मा के परमात्मा में विलीन हो जाने के सिद्धान्त का निराकरण एवं प्रत्येक मुक्तात्मा के पृथक् अस्तित्व के सिद्धान्त का मण्डन ध्वनित किया है। इसके पश्चात् एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्रत्येक संसारी जीव के भेद-प्रभेदों का निरूपण करके जीव को ईश्वर का अंश न मान कर प्रत्येक जीव का अपने-आप में स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध किया है। अगर ब्रह्मैकत्व—(आत्मैकत्ववाद) माना जाए तो प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व, १. (क) पण्णवणासुत्तं भा.-१, पृ. ३ से ४५ तक (ख) पण्णवणासुत्तं भा-२, प्रथम पद की प्रस्तावना, पृ. २९ से ३६ तक।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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