SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [प्रज्ञापना सूत्र के चय, शरीरों के पारस्परिक सम्बन्ध, उनके द्रव्य, प्रदेश, द्रव्यप्रदेशों तथा अवगाहना के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। बाईसवें क्रियापद में कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी व प्राणातिपातिकी, इन ५ क्रियाओं तथा इनके भेदों की अपेक्षा से समस्त संसारी जीवों का विचार किया गया है। । तेईसवें कर्मप्रकृतिपद में दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में से कौन जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? इसका विचार है। द्वितीय उद्देशक में कर्मों की उत्तरप्रकृतियों और उनके बन्ध का वर्णन है। चौबीसवें कर्मबन्ध पद में यह चिन्तन प्रस्तुत किया गया है कि ज्ञानावरणीय आदि में से किस कर्म को बांधते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? पच्चीसवें कर्मवेदपद में ज्ञानावरणीयादि कर्मों को बांधते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? इसका विचार किया गया है। । छब्बीसवें कर्मवेदबन्धपद में यह विचार प्रस्तुत किया गया है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है । । सत्ताईसवें कर्मवेदपद में—ज्ञानावरणीय आदि का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? इसका विचार किया गया है। 0 अट्ठाईसवें आहारपद में दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में—सचित्ताहारी आहारार्थी कितने काल तक, किसका आहार करता है ? क्या वह सर्वात्मप्रदेशों द्वारा आहार करता है, या अमुक भाग से आहार करता है ? क्या सर्वपुद्गलों का आहार करता है ? किस रूप में उसका परिणमन होता है ? लोमाहार आदि क्या हैं ?, इसका विचार है। दूसरे उद्देशक में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि आदि तेरह अधिकार हैं। - उनतीसवें उपयोगपद में दो उपयोगों के प्रकार बताकर किस जीव में कितने उपयोग पाए जाते हैं ? इसका वर्णन किया है। 0 तीसवें पश्यत्तापद में भी पूर्ववत् साकारपश्यत्ता (ज्ञान) और अनाकारपश्यत्ता (दर्शन) ये दो भेद बताकर इनके प्रभेदों की अपेक्षा से जीवों का विचार किया गया है। 0 इकतीसवें संज्ञीपद में संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी की अपेक्षा से जीवों का विचार किया है। बत्तीसवें संयतपद में संयत, असंयत और संयतासंयत की दृष्टि से जीवों का विचार किया गया है। - तेतीसवें अवधिपद में विषय, संस्थान, अभ्यन्तरावधि, बाह्यावधि, देशावधि, सर्वावधि, वृद्धि-अवधि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती, इन द्वारों के माध्यम से विचारणा की गई है।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy