SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११ वा उज्जाणं वा अतुरियं अचवलं अभ्र-बादलों की विकुर्वणा पोग्गले परिसाडित्ता दोच्चं पि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संवट्टयवाए विउव्वंति । से जहा नामए भइयदारए सिया तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपिटुंतरोरुपरिणए, घणनिचियवट्टवलियखंधे, चम्मेट्ठगदुघणमुट्ठिसमाहयगत्ते, उरस्स बलसमन्नागए, तलजमलजुयलबाहू लवण-पवण-जवण-पमद्दणसमत्थे छेए दक्खे पट्टे कुसले मेधावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं सलागाहत्थगं वा दंडसंपुच्छणिं वा वेणुसलागिगं वा गहाय रायङणं वा रायंतेपरं वा देवकलं वा सभं वा पर्व वा आरामं वा उज्जाणं वा अतरियं अचव असंभंतं निरंतरं सुनिउणं सव्वतो समंता संपमज्जेज्जा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स आभिओगिया देवा संवट्टयवाए विउव्वंति, विउव्वित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वतो समंता जोयणपरिमंडलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा तहेव सव्वं आहुणिय आहुणिय एगंते एडेंति, एडित्ता खिप्पामेव उवसमंति । १५- तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर उन आभियोगिक देवों ने हर्षित् यावत् विकसितहृदय होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वे उत्तर-पूर्व दिग्भाग में गये। वहां जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया और वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दंड बनाया जो कर्केतन यावत रिष्टरत्नमय था और और उन रत्नों के यथाबादर (असारभत) पदगलों को अलग किया। यथाबादर पुद्गलों को हटाकर दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके, जैसे कोई तरुण, बलवान, युगवान्-कालकृत उपद्रवों से रहित, युवा-युवावस्था वाला, जवान, रोग रहित-नीरोग, स्थिर पंजे वाला—जिसके हाथ का अग्रभाग कांपता न हो, पूर्णरूप से दृढ पुष्ट हाथ पैर पृष्ठान्तर—पीठ एवं पसलियों और जंघाओं वाला, अतिशय निचित परिपुष्ट मांसल गोल कंधोंवाला, चर्मेष्टक (चमड़े से वेष्टित पत्थर से बना अस्त्र विशेष), मुद्गर और मुक्कों की मार से सघन, पुष्ट सुगठित शरीर वाला, आत्मशक्ति सम्पन्न, युगपत् उत्पन्न तालवृक्षयुगल के समान सीधी लम्बी और पुष्ट भुजाओं वाला, लांघने-कूदने-वेगपूर्वक गमन एवं मर्दन करने में समर्थ, कलाविज्ञ, दक्ष, पटु, कुशल, मेधावी एवं कार्यनिपुण भृत्यदारक सीकों से बनी अथवा मूठ वाली अथवा बांस की सीकों से बनी बुहारी को लेकर राजप्रांगण, अन्तःपुर, देवकुल, सभा, प्याऊ, आराम अथवा उद्यान को बिना किसी घबराहट चपलता सम्भ्रम और आकुलता के निपुणतापूर्वक चारों तरफ से प्रमार्जित करता है—बुहारता है, वैसे ही सूर्याभदेव के उन आभियोगिक देवों ने भी संवर्तक वायु की विकुर्वणा की। विकुर्वणा करके श्रमण भगवान् महावीर के आस-पास चारों ओर एक योजन—चार कोस के इर्दगिर्द भूभाग में जो कुछ भी घास पत्ते आदि थे उन सभी को चुन-चुनकर एकान्त स्थान में ले जाकर फैंक दिया और शीघ्र ही अपने कार्य से निवृत्त हुए। अभ्र-बादलों की विकुर्वणा १६– दोच्चं पि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता अब्भवद्दलए विउव्वंति । से जहाणामए भइगदारगे सिया तरुणे जाव' सिप्पोवगए एगं महं दगवारगं वा, दगकुम्भगं वा; दगथालगं वा, दगकलसगं वा, गहाय आरामं वा जाव' पवं वा अतुरियं जाव सव्वतो १-२. सूत्र संख्या १५
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy