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राजप्रश्नीयसूत्र
हे भदन्त! हम सूर्याभदेव के आभियोगिक देव आप देवानुप्रिय को वंदन करते हैं, नमस्कार करते हैं, आप का सत्कार-सम्मान करते हैं एवं कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और चैत्यरूप आप देवानुप्रिय की पर्युपासना करते हैं।
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विवेचन— मूल शरीर को न छोड़कर अर्थात् मूल शरीर में रहते हुए जीवप्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। वेदना आदि सात कारणों से जीव- प्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने के कारण समुद्घात के सात भेद हैं। उनमें से यहां वैक्रिय समुद्घात का उल्लेख है। यह वैक्रियशरीरनामकर्म के आश्रित है। वैक्रियलब्धि वाला जीव विक्रिया करते समय अपने आत्मप्रदेशों को त्रिष्कंभ और मोटाई में शरीर परिमाण और ऊंचाई में संख्यात योजन प्रमाण दंडाकार रूप में शरीर से बाहर निकलता है।
वैक्रियलब्धि से पृथक् विक्रिया भी होती है और अपृथक् भी। आभियोगिक देवों ने पहले पृथक् विक्रिया द्वारा दंड और उसके पश्चात् दूसरी बार अपने-अपने उत्तर रूप की विकुर्वणा की । इसलिए यहां दो बार वैक्रिय समुद्घात करने का उल्लेख किया है।
गति की तीव्रता बताने के लिए यहां उक्किट्ठाए आदि समान भाव वाले अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार की वाक्यपद्धति प्राचीन वैदिक व बौद्ध ग्रन्थों में भी देखने को मिलती है । समानार्थक विभिन्न शब्दों का प्रयोग विवक्षित भाव पर विशेष भार डालने के लिए किया जाता है । आज भी इस पद्धति के प्रयोग देखने आते हैं।
१४ – 'देवा' इ समणे भगवं महावीरे ते देवे एवं वदासी— पोराणमेयं देवा ! जीयमेयं देवा ! किच्चमेयं देवा ! करणिज्जमेयं देवा ! आचिन्नमेयं देवा ! अब्भणुण्णायमेयं देवा ! जं णं भवणवइ-वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया देवा अरहंते भगवंते वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमसित्ता तओ साइं साइं णाम-गोयाइं साहिंति, तं पोराणमेयं देवा ! जाव अब्भणुण्णायमेयं देवा !
१४—– ‘हे देवो!' इस प्रकार से सूर्याभदेव के आभियोगिक देतों को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने उन देवों से कहा—हे देवो ! यह पुरातन है अर्थात् प्राचीनकाल से देवों में परम्परा से चला आ रहा है । हे देवो ! यह देवों का जीतकल्प है अर्थात् देवों की आचारपरम्परा है। हे देवो! यह देवों के लिए कृत्य करने योग्य कार्य है । है देवो! यह करणीय है अर्थात् देवों को करना ही चाहिए । हे देवो ! यह आचीर्ण है अर्थात् देवों द्वारा पहले भी इसी प्रकार से आचरण किया जाता रहा है। हे देवो! यह अनुज्ञात है अर्थात् पूर्व के सब देवेन्द्रों ने संगत माना है कि भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अरिहंत भगवन्तों को वन्दन - नमस्कार करते हैं । और वन्दननमस्कार करके अपने-अपने नाम - गोत्र कहते हैं, यह पुरातन है यावत् हे देवो ! यह अभ्यनुज्ञात है।
संवर्तक वायु की विकुर्वणा
१५- तए णं ते आभिओगिया देवा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव' हियया समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसति, वंदित्ता णमंसित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निस्सिरंति । तं जहा रययाणं जाव' रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडंति, अहाबायरे १ - २. सूत्र संख्या १३