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राजप्रश्नीयसूत्र
भी नगररक्षा का एक साधन था। चैत्य-वर्णन
२- तीसे णं आमलकप्पाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अंबसालवणे नामं चेइए होत्था [चिरातीते पुव्वपुरिसपण्णत्ते पोराणे सहिए कित्तिए नाए सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपडागे पडागाइपडागमंडिए सलोमहत्थे कयवेयड्डिए लाइय-उल्लोइयमाहिए गोसीससरसरत्तचंदणदद्दर-दिण्णपंचंगुलितले उवचियचंदणकलसे चंदणघडसुकय-तोरणपडिदुवारदेसभाए आसित्तोसित्तविउलवट्ट-वग्धारियमल्लदामकलावे पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए कालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक्क-धूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए णड-पट्टग-जल्लमल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग-पवग-कहग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणिय-भुयगमागहपरिगए बहुजण-जाणवयस्स विस्सुयकित्तिए बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे पाहुणिज्जे अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमंसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे दिव्वे सच्चे सच्चोवाए जागसहस्सभागपडिच्छए, बहुजणो अच्चेइ आगम्म अंबसालवणचेइयं अंबसालवणचेइयं ।] . २- उस आमलकप्पा नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिक्कोण अर्थात् ईशान दिशा में आम्रशालवन नामक चैत्य था। वह चैत्य बहुत प्राचीन था। पूर्व पुरुष–पूर्वज, बड़े-बूढ़े भी उसको इसी प्रकार का कहते आ रहे थे। पुराना था। प्रसिद्ध था। अथवा अनेक परिवारों की आजीविका का साधक था। विख्यात था। दूर-दूर तक उसकी कीर्ति फैली हुई थी, उसके नाम से सभी परिचित थे। छत्र, ध्वजा, घंटा, पताकाओं से मंडित था। उसके शिखर पर अनेक छोटी-बड़ी पताकायें लहराती रहती थीं। मोर पंखों की पीछियों से युक्त था। उसके बीच वेदिका बनी हुई थी। आंगन गोबर से लिपा रहता था और दीवालें सफेद मिट्टी से पुती हुई थी। दीवालों पर गोरोचन और सरस रक्त चंदन के थापे हाथे लगे हुए थे। जगह-जगह चंदन चर्चित कलश रखे थे। द्वार-द्वार पर चंदन के बने घट रखे थे और अच्छी तरह से बनाये हुए तोरणों के द्वारा दरवाजों के ऊपरी भाग सुशोभित थे। ऊपर से लेकर नीचे तक लटकती हुई गोलाकार में गुंथी हुई मालाओं से दीवालें मंडित थी। स्थान-स्थान पर रंगबिरंगे सरस, सुगंधित पुष्प-पुञ्जों से अनेक प्रकार के मांडने मड़े हुए थे। धूपदानों में कृष्णागुरु–सुंगंधित काष्ठ-विशेष, श्रेष्ठ कुंदरू, तुरुष्क—लोबान और धूप आदि के जलने से महकता रहता था और उस महक के उड़ने से बड़ा सुहावना लगता था। श्रेष्ठ सुगंध से सुवासित होने के कारण गंधवर्तिका जैसा मालूम होता था। नट, नृत्यकार, रस्सी पर खेल दिखाने वालों, मल्ल, पंजा लड़ाने वालों, बहुरूपियों, तैरने वालों, कथा कहानी कहने वालों, रास रचने वालों, शुभ-अशुभ शकुन बताने वालों, ऊंचे बांस पर खेल दिखाने वालों, चित्र दिखाकर भीख मांगने वालों, शहनाई बजाने वालों, तंबूरा बजाने वालों, भोजक—गाने वालों, मागध—चारण, भाट आदि से वह. चैत्य सदा व्याप्त—घिरा रहता था। नगरवासियों और दूर-देशवासियों में इसकी प्रसिद्धि कीर्ति फैली हुई थी जिससे बहुत से लोग वहां आहुति—जात देने आते रहते थे। वे उसे दक्षिणापात्र—दान देने योग्य स्थान, अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय मानते थे तथा कल्याणरूप मंगलरूप, देवरूप और चैत्यरूप मानकर विनयपूर्वक उपासना सेवा करने योग्य मानते थे। दिव्य,