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________________ सूर्यकान्ता रानी का षड्यंत्र १९९ तए णं सूरियकंते कुमारे सूरियकंताए देवीए एवं वुत्ते समाणे सूरियकंताए देवीए एयमद्वं णो आढाइ नो परियाणाइ, तुसिणीइ संचिट्ठइ । तए णं तीसे सूरियकंताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था—मा णं सूरियकंते कुमारे पएसिस्स रन्नो इमं रहस्सभेयं करिस्सइ त्ति कटु पएसिस्स रण्णो छिद्दाणि य मम्माणि य रहस्साणि य विवराणि य अंतराणि य पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ । २७६– राजा प्रदेशी को राज्य आदि के प्रति उदासीन देखकर सूर्यकान्ता रानी को यह और इस प्रकार का आन्तरिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि जब से राजा प्रदेशी श्रमणोपासक हुआ है, उसी दिन से राज्य, राष्ट्र, यावत् अन्तःपुर, जनपद और मुझसे विमुख हो गया है। अतः मुझे यही उचित है कि शस्त्रप्रयोग, अग्निप्रयोग, मंत्रप्रयोग अथवा विषप्रयोग द्वारा राजा प्रदेशी को मारकर और सूर्यकान्त कुमार को राज्य पर आसीन करके अर्थात् राजा बनाकर स्वयं राज्यलक्ष्मी का भोग करती हई. प्रजा का पालन करती हई आनन्दपर्वक रहं। ऐसा उसने विचार किया। विचार करके सूर्यकान्त कुमार को बुलाया और बुलाकर अपनी मनोभावना बताई हे पुत्र! जब से प्रदेशी राजा ने श्रमणोपासक धर्म स्वीकार कर लिया है, तभी से राज्य यावत् अन्तःपुर, जनपद और मनुष्य संबंधी कामभोगों की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है। इसलिए पुत्र ! तुम्हें यही श्रेयस्कर है कि शस्त्रप्रयोग आदि किसी-न-किसी उपाय से प्रदेशी राजा को मारकर स्वयं राज्यलक्ष्मी का भोग एवं प्रजा का पालन करते हुए अपना जीवन बिताओ। .. सूर्यकान्ता देवी के इस विचार को सुनकर सूर्यकान्त कुमार ने उसका आदर नहीं किया, उस पर ध्यान नहीं दिया किन्तु शांत-मौन ही रहा। तब सूर्यकान्ता रानी को इस प्रकार का आन्तरिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि सूर्यकान्त कुमार प्रदेशी राजा के सामने मेरे इस रहस्य को प्रकाशित कर दे। ऐसा सोचकर सूर्यकान्ता रानी प्रदेशी राजा को मारने के लिए उसके दोष रूप छिद्रों को, कुकृत्य रूप आन्तरिक मर्मों को, एकान्त में सेवित निषिद्ध आचरण रूप रहस्यों को, एकान्त निर्जन स्थानों को और अनुकूल अवसर रूप अन्तरों को जानने की ताक में रहने लगी। २७७– तए णं सूरियकंता देवी अन्नया कयाइ पएसिस्स रणो अंतरं जाणइ, असणं जाव खाइमं सव्वं वत्थ-गंध-मल्लालंकारं विसप्पओगं पउंजइ, पएसिस्स रण्णो ण्हायस्स जाव पायच्छित्तस्स सुहासणवरगयस्स तं विससंजुत्तं असणं वत्थं जाव-अलंकारं निसिरेइ, घातइ । ना तम्म पसिस्स रण्णो तं विससंजत्तं असणं आहारेमाणस्स सरीरगंमि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विपुला पगाढा कक्कसा कडुया फरुसा निठुरा चंडा तिव्वा दुक्खा दुग्गा दुरहियासा पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिया वि विहरइ । २७७– तत्पश्चात् किसी एक दिन अनुकूल अवसर मिलने पर सूर्यकान्ता रानी ने प्रदेशी राजा को मारने के लिए अशन-पान आदि भोजन में तथा शरीर पर धारण करने योग्य सभी वस्त्रों, सूंघने योग्य सुगन्धित वस्तुओं, पुष्पमालाओं और आभूषणों में विष डालकर विषैला कर दिया। इसके बाद जब वह प्रदेशी राजा स्नान यावत् मंगल प्रायश्चित्त कर भोजन करने के लिए सुखपूर्वक श्रेष्ठ आसन पर बैठा तब वह विषमिश्रित घातक अशन आदि रूप आहार परोसा तथा विषमय वस्त्र पहनाये यावत् विषमय अलंकारों से उसको शृंगारित किया। GIU U
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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