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________________ प्रदेशी की प्रतिक्रिया एवं श्रावकधर्म-ग्रहण १९७ से रमणीय नहीं रहता है। ___ इसी प्रकार नाट्यशाला भी जब तक संगीत-गान होता रहता है, बाजे बजते रहते हैं, नृत्य होते रहते हैं, लोगों के हास्य से व्याप्त रहती है और विविध प्रकार की रमतें—क्रीडायें होती रहती हैं तब तक रमणीय-सुहावनी लगती है, किन्तु जब उसी नाट्यशाला में गीत नहीं गाये जा रहे हों यावत् क्रीड़ायें नहीं हो रही हों, तब वही नाट्यशाला असुहावनी हो जाती है। इसी तरह प्रदेशी ! जब तक इक्षुवाड़ (ईख के खेत) में ईख कटती हो, टूटती हो, पेरी जाती हो, लोग उसका रस पीते हों, कोई उसे लेते-देते हों, तब तक वह इक्षुवाड़ रमणीय लगता है। लेकिन जब उसी इक्षुवाड़ में ईख न कटती हो आदि तब वही मन को अरमणीय—अप्रिय, अनिष्टकर लगने लगती है। इसी प्रकार प्रदेशी ! जब तक खलवाड़ (खलिहान) में धान्य के ढेर लगे रहते हैं, उड़ावनी होती रहती है, धान्य का मर्दन (दांय) होता रहता है, तिल आदि पेरे जाते हैं, लोग एक साथ मिलकर भोजन खाते-पीते, देते-लेते हैं, तब तक वह रमणीय मालूम होता है, लेकिन जब धान्य के ढेर आदि नहीं रहते तब वही अरमणीय दिखने लगता है। ___इसीलिए हे प्रदेशी! मैंने यह कहा है कि तुम पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय मत हो जाना, जैये कि वनखंड आदि हो जाते हैं। विवेचन— प्रस्तुत सूत्रगत—'मा णं तुमं पएसी ! पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि' वाक्य का टीकाकार आचार्य ने इस प्रकार आशय स्पष्ट किया है—केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा कि हे राजन् ! जब तुम धर्मानुगामी नहीं थे तब दूसरे लोगों को दान देते थे तो दान देने की यह प्रथा अब भी चालू रखना। अर्थात् पूर्व में जैसे रमणीय-दानी थे उसी तरह अब भी रमणीय-दानी रहना किन्तु अरमणीय न होना। यदि अरमणीय हो जाओगे संकुचित दृष्टि वाले हो जाओगे तो इससे निर्ग्रन्थप्रवचन की अपकीर्ति फैलेगी और हमें अन्तराय कर्म का बंध होगा। २७३- तए णं पएसी केसिं कुमारसमणं एवं वयासी—णो खलु भंते ! अहं पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविस्सामि, जहा वणसंडे इ वा जाव खलवाड़े इ वा । अहं णं सेयवियानगरीपमुक्खाइं सतगामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि, एगं भागं. बलवाहणस्स दलइस्सामि, एगं भागं कोट्ठागारे छुभिस्सामि, एगं भागं अंतेउरस्स दलइस्सामि, एगेणं भागेणं महतिमहलयं कूडागारसालं करिस्सामि, तत्थ णं बहूहिं पुरिसेहिं दिनभइभत्तवेयणेहिं विउलं असणं० (पानं-खाइमं-साइमं) उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-भिक्खुयाणं-पंथियपहियाणं परिभाएमाणे बहूहिं सीलव्वयगुणव्वयवेरमणपच्चखाणपोसहोववासस्स जाव विहरिस्सामि त्ति कटु जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए । २७३– तब प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार निवेदन किया—भदन्त! आप द्वारा दिये गये वनखण्ड यावत् खलवाड़ के उदाहरणों की तरह मैं पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय नहीं बनूंगा। क्योंकि मैंने यह विचार किया है कि सेयवियानगरी आदि सात हजार ग्रामों के चार विभाग करूंगा। उनमें से एक भाग राज्य की व्यवस्था और रक्षण के लिए बल (सेना) और वाहन के लिए दंगा. एक भाग प्रजा के पालन हेत कोठार में अन्न आदि
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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