________________
राजप्रश्नीयसूत्र
२६९ –— तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी— जाणासि तुमं पएसी ! कइ आयरिया पन्नत्ता ?
१९४
हंता जाणामि, तओ आयरिआ पण्णत्ता, तं जहा – कलायरिए, सिप्पायरिए, धम्मायरिए । जाणासि णं तुमं पएसी ! तेसिं तिण्हं आयरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पउंजियव्वा ?
हंता जाणामि, कलायरियस्स सिप्पायरिस्स उवलेवणं संमज्जणं वा करेज्जा, पुरओ पुप्फाणि वा आणवेज्जा, मज्जावेज्जा, मंडावेज्जा, भोयाविज्जा वा विउलं जीवितारिहं पीइदाणं दलज्जा, पुत्ताणुपुत्तियं वित्तिं कप्पेज्जा । जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा तत्थेव वंदेज्जा णमंसेज्जा सक्कारेज्जा सम्माणेज्जा, कल्लाणं मंगलं चेइयं पज्जुवासेज्जा, फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेज्जा, पाडिहारिएणं पीढ-फलग-सिज्जा संथारएणं उवनिमंतेज्जा ।
एवं च ताव तुमं पएसी ! एवं जाणासि तहावि णं तुमं ममं वामं वामेणं जाव वट्टत्ता ममं एयमट्ठे अखामित्ता जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ?
२६९ – तब केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा— प्रदेशी ! जानते हो कितने प्रकार के आचार्य होते
हैं ?
प्रदेशी — हां, भदन्त ! जानता हूं, तीन ( प्रकार के) आचार्य होते हैं - १. कलाचार्य, २. शिल्पाचार्य, ३. धर्माचार्य ।
केशी कुमार श्रमण- प्रदेशी ! तुम जानते हो कि इन तीन आचार्यों में से किसकी कैसी विनयप्रतिपत्ति करनी
चाहिए ?
प्रदेशी — हां, भदन्त ! जानता हूं। कलाचार्य और शिल्पाचार्य के शरीर पर चन्दनादि का लेप और तेल आदि का मर्दन (मालिश करना चाहिए, उन्हें स्नान कराना चाहिए, उनके सामने पुष्प आदि भेंट रूप में रखना चाहिए, उनके कपड़ों आदि को सुरभि गन्ध से सुगन्धित करना चाहिए, आभूषणों आदि से उन्हें अलंकृत करना चाहिए, आदरपूर्वक भोजन कराना चाहिए और आजीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान देना चाहिए, एवं उनके लिए ऐसी आजीविका की व्यवस्था करना चाहिए कि पुत्र पौत्रादि परम्परा भी जिसका लाभ ले सके। धर्माचार्य के जहां भी दर्शन हों, वहीं उनको वन्दना - नमस्कार करना चाहिए, उनका सत्कार - सन्मान करना चाहिए और कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एवं ज्ञानरूप उनकी पर्युपासना करनी चाहिए तथा अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य भोजन-पान से उन्हें प्रतिलाभित करना चाहिए, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या-संस्तारक आदि ग्रहण करने के लिए उनसे प्रार्थना करनी चाहिए।
केशी कुमार श्रमण- प्रदेशी ! इस प्रकार की विनयप्रतिपत्ति जानते हुए भी तुम अभी तक मेरे प्रति जो प्रतिकूल व्यवहार एवं प्रवृत्ति करते रहे, उसके लिए क्षमा मांगे बिना ही सेयविया नगरी की ओर चलने के लिए उद्यत हो रहे हो ?
२७०—– तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वदासी— एवं खलु भंते ! मम एयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था ——– एवं खलु अहं देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाव ट्ट, तं सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहा