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तज्जीव- तच्छरीवाद मंडन- खंडन
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णागोवा, किन्नरो वा चालेइ, किंपुरिसो वा चालेइ, महोरगो वा चालेइ, गंधव्वो वा चालेइ ? - हंता जाणामिणो देवो चालेइ जाव णो गंधव्वो चालेइ, वाउयाए चाले ।
पाससि णं तुमं पएसी ! एतस्स वाउकायस्स सरूविस्स सकामस्स सरागस्स समोहस्स सवेयस्स ससस्स ससरीरस्स रूवं ?
णो तिणट्टे ( समट्ठे ) ।
जइ णं तुमं पएसी राया ! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीरस्स रूवं न पाससि तं कहं णं पएसी ! तव करयलंसि वा आमलगं जीवं उवदंसिस्सामी ? एवं खलु पएसी ! दसट्ठाणाई छउमत्थे मणुस्से सव्वभावेणं न जाणइ न पासइ, तं जहा — धम्मत्थिकायं १, अधम्मत्थिकायं २, आगासत्थिकायं ३, जीवं असरीरबद्धं ४, परमाणुपोग्गलं ५, सद्दं ६, गंधं ७, वायं ८, अयं जिणे भविस्सइ वा णो भविस्सइ ९, अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्सइ वा नो वा १० । एताणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ तं जहा — धम्मत्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ, णं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा— अन्नो जीवो तं चेव ।
२६४— तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमार श्रमण से कहा— हे भदन्त ! आप अवसर को जानने में निपुण हैं, कार्यकुशल हैं यावत् आपने गुरु से शिक्षा प्राप्त की है तो भदन्त ! क्या आप मुझे हथेली में स्थित आंवले की तरह शरीर से बाहर जीव को निकालकर दिखाने में समर्थ हैं ?
प्रदेशी राजा ने यह कहा ही था कि उसी काल और उसी समय प्रदेशी राजा से अति दूर नहीं अर्थात् निकट ही हवा के चलने से तृण-घास, वृक्ष आदि वनस्पतियां हिलने-डुलने लगीं, कांपने लगीं, फरकने लगीं, परस्पर टकराने लगीं, अनेक विभिन्न रूपों में परिणत होने लगीं।
तब केशी कुमारश्रमण ने राजा प्रदेशी से पूछा— हे प्रदेशी ! तुम इन तृणादि वनस्पतियों को हिलते-डुलते यावत् उन-उन अनेक रूपों में परिणत होते देख रहे हो ?
प्रदेशी—हां देख रहा हूं।
केश कुमार श्रमण – तो प्रदेशी ! क्या तुम यह भी जानते हो कि इन तृण-वनस्पतियों को कोई देव हिला रहा है अथवा असुर हिला रहा है अथवा कोई नाग, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गंधर्व हिला रहा है।
प्रदेशी— हां, भदन्त ! जानता हूं। इनको न कोई देव हिला-डुला रहा है, यावत् न गंधर्व हिला रहा है। ये वायु से हिल-डुल रही हैं।
शकुमार श्रमण हे प्रदेशी ! क्या तुम उस मूर्त, काम, राग, मोह, वेद, लेश्या और शरीर धारी वाय के रूप को देखते हो ?
प्रदेशी – यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् भदन्त ! मैं उसे नहीं देखता हूं।
केशी कुमारश्रमण – जब राजन् ! तुम इस रूपधारी (मूर्त) यावत् सशरीर वायु के रूप को भी नहीं देख सकते तो हे प्रदेशी ! इन्द्रियातीत ऐसे अमूर्त जीव को हाथ में रखे आंवले की तरह कैसे देख सकते हो ? क्योंकि प्रदेशी ! छद्मस्थ (अल्पज्ञ) मनुष्य (जीव ) इन दस वस्तुओं को उनके सर्व भावों- पर्यायों सहित जानते-देखते नहीं