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तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन
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मम अज्जिया होत्था, इहेव सेयवियाए नगरीए धम्मिया जाव वित्तिं कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगयजीवा० सव्वो वण्णओ जाव' अप्पाणं भावेमाणी विहरइ, सा णं तुझं वत्तव्वयाए सुबहुं पुन्नोवचयं समन्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा, तीसे णं अज्जियाए अहं नत्तुए होत्था इट्टे कंते जाव' पासणयाए, तं जइ णं सा अज्जिया मम आगंतुं एवं वएज्जा—एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जिया होत्था, इहेव सेयवियाए नगरीए धम्मिया जाव वित्तिं कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विहरामि । तए णं अहं सुबहुं पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता जाव देवलोएसु उववण्णा, तं तुमं पि णत्तुया ! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि, तए णं तुमं पि एयं चेव सुबहुं पुण्णोवचयं समन्जिणित्ता जाव (कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए) उववज्जिहिसि ।
तं जइ अज्जिया मम आगंतुं एवं वएज्जा तो णं अहं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोइज्जा जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं । जम्हा सा अज्जिया ममं आगंतुं णो एवं वदासी, तम्हा सुपइट्ठिया मे पइण्णा जहा–तं जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं ।
___ २४६- केशी कुमारश्रमण के पूर्वोक्त कथन को सुनने के पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण के समक्ष नया तर्क प्र त करते हुए कहा हे भदन्त! मेरी आजी-दादी थीं। वह इसी सेयविया नगरी में धर्मपरायण यावत् धार्मिक आचार-विचारपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करनेवाली, जीव-अजीव आदि तत्त्वों की ज्ञाता श्रमणोपासिक यावत् तप से आत्मा को भावित करती हुई अपना समय व्यतीत करती थीं इत्यादि समस्त वर्णन यहां समझ लेना चाहिए और आपके कथनानुसार वे पुण्य का उपार्जन कर कालमास में काल करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई हैं। उन आर्यिका (दादी) का मैं इष्ट, कान्त यावत् दुर्लभदर्शन पौत्र हूं। अतएव वे आर्यिका यदि यहां आकर मुझसे इस प्रकार कहें कि हे पौत्र! मैं तुम्हारी दादी थी और इसी सेयविया नगरी में धार्मिक जीवन व्यतीत करती हुई श्रमणोपासिका हो यावत् अपना समय बिताती थी। इस कारण मैं विपुल पुण्य का संचय करके यावत् देवलोक में उत्पन्न हुई हूं। हे पौत्र! तुम भी धार्मिक आचार-विचारपूर्वक अपना जीवन बिताओ। जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन करके यावत् (मरणसमय में मरण करके किसी एक देवलोक में देवरूप से) उत्पन्न होओगे।
इस प्रकार से यदि मेरी दादी आकर मुझसे कहें कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है किन्तु वही जीव वही शरीर नहीं अर्थात् जीव और शरीर एक नहीं हैं, तो हे भदन्त ! मैं आपके कथन पर विश्वास कर सकता हूं, प्रतीति कर सकता हूं और अपनी रुचि का विषय बना सकता हूं। परन्तु जब तक मेरी दादी आकर मुझसे ऐसा नहीं कहती तब तक मेरी यह धारणा सुप्रतिष्ठित एवं समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है। किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं।
विवेचन— यहां राजा प्रदेशी ने अपनी धार्मिक दादी का उदाहरण देकर जो व्यक्त किया, उसे दीघनिकाय में राजा पायासि ने अपने धर्मपरायण मित्रों के उदाहरण द्वारा बताया है कि आप अपनी धर्मवृत्ति के कारण स्वर्ग जाने वाले हैं और ऐसा हो तो आप मुझे यह समाचार अवश्य देना। १. देखें सूत्र संख्या २२२ २. देखें सूत्र संख्या २४४