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केशी कुमारश्रमण का उत्तर
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नो लभइ सवणयाए ।
(४) जत्थ वि य णं समणेण वा माहणेण वा सद्धिं अभिसमागच्छइ, तत्थ वि णं हत्थेण वा वत्थेण वा छत्तेण वा अप्पाणं आवरित्ता चिट्टइ, नो अट्ठाइं जाव पुच्छइ, एएण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्मं णो लभइ सवणयाए । एएहिं च णं चित्ता ! चउहिं ठाणेहिं जीवे णो लभइ केवलिपन्नत्तं धर्म सवणयाए ।
चउहि ठाणेहिं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्मं लभइ सवणयाए तं जहा (१) आरामगयं वा उन्जाणगयं वा समणं वा माहणं वा वंदइ नमसइ जाव (सक्कारेइ, सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं) पज्जुवासइ अट्ठाई जाव (हेऊइं पसिणाइं कारणाइं वागरणाइं) पुच्छइ, एएणं वि जाव लभइ सवणयाए एवं (२) उवस्सयगयं (३) गोयरग्गगयं समणं वा जाव पज्जुवासइ विउलेणं जाव (असण-पाण-खाइम-साइमेणं) पडिलाभेइ, अट्ठाइं जाव पुच्छइ एएण वि० (४) जत्थ वि य णं समणेण वा माहणेण वा अभिसमागच्छइ तत्थ वि य णं णो हत्थेण वा जाव (वत्थेण वा, छत्तेण वा अप्पाणं) आवरेत्ताणं चिट्ठइ, एएण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए । __तुझं च णं चित्ता ! पएसी राया आरामगयं वा तं चेव सव्वं भाणियव्वं आइल्लएणं गमएणं जाव अप्पाणं आवरेत्ता चिट्ठइ, तं कहं णं चित्ता ! पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खिस्सामो ?
२३४-चित्त सारथी की भावना को सुनने के अनन्तर केशी कुमार श्रमण ने चित्त सारथी को समझाया
हे चित्त! जीव निश्चय ही इन चार कारणों से केवलि-भाषित धर्म को सुनने का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता है। वे चार कारण इस प्रकार हैं
१. आराम (बाग) में अथवा उद्यान में स्थित श्रमण या माहन के अभिमुख जो नहीं जाता है, मधुर वचनों से जो उनकी स्तुति नहीं करता है, मस्तक नमाकर उनको नमस्कार नहीं करता है, अभ्युत्थानादि द्वारा (आसन से उठकर) उनका सत्कार नहीं करता है, उनका सम्मान नहीं करता है तथा कल्याण स्वरूप, मंगल स्वरूप, देव स्वरूप, विशिष्ट ज्ञान स्वरूप मानकर जो उनकी पर्युपासना नहीं करता है; जो अर्थ—जीवाजीवादि पदार्थों को, हेतुओं (मुक्ति के उपायों) को जानने की इच्छा से प्रश्नों को, कारणों (संसारबन्ध के कारणों) को, व्याख्याओं (तत्त्वों का पूर्ण ज्ञान करने के लिए उनके स्वरूप) को नहीं पूछता है, तो हे चित्त ! वह जीव केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है।
२. उपाश्रय में स्थित श्रमण आदि का वन्दन, नमन, सत्कार-सन्मान आदि करने के निमित्त जो उनके समक्ष नहीं जाता यावत् उनसे व्याकरण (तत्त्व का विवेचन) नहीं पूछता, तो इस कारण भी हे चित्त ! वह जीव केवलिभाषित धर्म को सुन नहीं पाता है।
३. गोचरी भिक्षा के लिए गांव में गये हुए श्रमण अथवा माहन का सत्कार आदि करने के निमित्त जो उनके समक्ष नहीं जाता यावत् उनकी पर्युपासना नहीं करता तथा विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार से उन्हें प्रतिलाभित नहीं करता एवं शास्त्र के अर्थ यावत् व्याख्या को उनसे नहीं पूछता, तो ऐसा जीव भी हे चित्त ! केवली भगवान् द्वारा निरूपित धर्म को नहीं सुन पाता है।
४. कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिल जाने पर भी वहां अपने आप को छिपाने के लिए अथवा पहचाना