________________
१५२
राजप्रश्नीयसूत्र
चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। जहां चार घण्टों वाला रथ था, वहां आया और उस पर आरूढ़ होकर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर विशाल सुभटों के समुदाय सहित रवाना हुआ। वहां पहुंच कर पर्युपासना करने लगा। केशी कुमारश्रमण ने धर्मोपदेश दिया। इत्यादि कथन पहले के समान यहां समझ लेना चाहिए।
२३३ – तए णं से चित्ते सारही केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुढे तहेव एवं वयासी—एवं खलु भंते ! अहं पएसी राया अधम्मिए जाव' सयस्स वि णं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेइ, तं जइ णं देवाणुप्पिया ! पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणतरं खलु होज्जा पएसिस्स रण्णो तेसिं च बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खीसिरीसवाणं, तेसिं च बहूणं समणमाहणभिक्खुयाणं, तं जइ णं देवाणुप्पिया ! पएसिस्स बहुगुणतरं होज्जा सयस्स वि य णं जणवयस्स ।
___२३३– तत्पश्चात् धर्म श्रवण कर और हृदय में धारण कर हर्षित, सन्तुष्ट, चित्त में आनन्दित, अनुरागी, परम सौम्यभाव युक्त एवं हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया
हे भदन्त! हमारा प्रदेशी राजा अधार्मिक है, यावत् राजकर लेकर भी समीचीन रूप से अपने जनपद का पालन एवं रक्षण नहीं करता है। अतएव आप देवानुप्रिय! यदि प्रदेशी राजा को धर्म का व्याख्या करेंगे—धर्मोपदेश देंगे तो प्रदेशी राजा के लिए, साथ ही अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों आदि के लिए, बहुत से श्रमणों, माहणों एवं भिक्षुओं आदि के लिए बहुत-बहुत गुणकारी हितावह, लाभदायक होगा। हे देवानुप्रिय! यदि वह धर्मोपदेश प्रदेशी के लिए हितकर हो जाता है तो उससे जनपद देश को भी बहुत लाभ होगा। केशी कुमारश्रमण का उत्तर
२३४ - तए णं केसी कुमारसमणं चित्तं सारहिं एवं वयासी
एवं खलु चउहिं ठाणेहिं चित्ता ! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्जा सवणयाए, तं जहा
(१) आरामगयं वा उजाणगयं वा समणं वा माहणं वा णो अभिगच्छइ, णो वंदइ, णो णमंसइ, णो सक्कारेइ, णो सम्माणेइ, णो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेइ, नो अट्ठाई हेऊइं पसिणाइं कारणाई वागरणाई पुच्छइ, एएणं ठाणेणं चित्ता ! जीवा केवलिपत्तं धम्मं नो लभंति सवणयाए ।
(२) उवस्सयगयं समणं वा तं चेव जाव एतेण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभंति सवणयाए ।
(३) गोयरग्गगयं समणं वा माहणं वा जाव नो पज्जुवासइ, णो विउलेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं पडिलाभइ० णो अट्ठाइं जाव पुच्छइ, एएणं ठाणेणं चित्ता ! केवलिपन्नत्तं धम्म १. देखें सूत्र संख्या २२६