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________________ चित्त सारथी का श्रावस्ती की ओर प्रयाण १३३ हे चित्त! तुम श्रावस्ती नगरी जाओ और वहां जितशत्रु राजा को यह महार्थ यावत् (महान् पुरुषों के अनुरूप और राजा के योग्य मूल्यवान्) भेंट दे आओ तथा जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं वहां की शासन-व्यवस्था, राजा की दैनिकचर्या, राजनीति और राजव्यवहार को देखो, सुनो और अनुभव करो—ऐसा कहकर विदा किया। ___ तब वह चित्त सारथी प्रदेशी राजा की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित हुआ यावत् (संतुष्ट हुआ, चित्त में आनन्दित, मन में अनुरागी हुआ, परमसौमनस्य भाव को प्राप्त हुआ एवं हर्षातिरेक से विकसित-हृदय होकर उसने दोनों हाथ जोड़ शिर पर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके—'राजन्! ऐसा ही होगा' कहकर विनयपूर्वक आज्ञा को स्वीकार किया।) आज्ञा स्वीकार करके उस महार्थक यावत् उपहार को लिया और प्रदेशी राजा के पास से निकल कर बाहर आया। बाहर आकर सेयविया नगरी के बीचों-बीच से होता हुआ जहां अपना घर था, वहां आया। आकर उस महार्थक उपहार को एक तरफ रख दिया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा देवानुप्रियो ! शीघ्र ही छत्र सहित यावत् चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर तैयार कर लाओ यावत् इस आज्ञा को वापस लौटाओ। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने चित्त सारथी की आज्ञा सुनकर आज्ञानुरूप शीघ्र ही छत्रसहित यावत् युद्ध के लिये सजाये गये चातुर्घटिक अश्वरथ को जोत कर उपस्थित कर दिया और आज्ञा वापस लौटाई, अर्थात् रथ तैयार हो जाने की सूचना दी। कौटुम्बिक पुरुषों का यह कथन सुनकर चित्त सारथी हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् विकसित हृदय होते हुए उसने स्नान किया, बलिकर्म (कुलदेवता की अर्चना की, अथवा पक्षियों को दाना डाला), कौतुक (तिलक आदि) मंगलप्रायश्चित्त किये और फिर अच्छी तरह से शरीर पर कवच बांधा। धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई, गले में ग्रैवेयक और अपने श्रेष्ठ संकेतपट्टक को धारण किया एवं आयुध तथा प्रहरणों को ग्रहण कर, वह महार्थक यावत् उपहार लेकर वहां आया जहां चातुर्घट अश्वरथ खड़ा था। आकर उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ। ___ तत्पश्चात् सन्नद्ध यावत् आयुध एवं प्रहरणों से सुसज्जित बहुत से पुरुषों से परिवृत्त हो, कोरंट पुष्प की मालाओं से विभूषित छत्र को धारण कर, सुभटों और रथों के समूह के साथ अपने घर से रवाना हुआ और सेयविया नगरी के बीचोंबीच से निकल कर सुखपूर्वक रात्रिविश्राम, प्रात:कलेवा, अति दूर नहीं किन्तु पास-पास अन्तरावास (पड़ाव) करते और जगह-जगह ठहरते-ठहरते केकयअर्ध जनपद के बीचोंबीच से होता हुआ जहां कुणाला जनपद था, जहां श्रावस्ती नगरी थी, वहां आ पहुंचा। वहां आकर श्रावस्ती नगरी के मध्यभाग में प्रविष्ट हुआ। इसके बाद जहां जितशत्रु राजा का प्रासाद था और जहां राजा की बाह्य उपस्थानशाला थी.वहां आकर घोडों को रोका.रथ को खडा किया अ फिर रथ से नीचे उतरा। तदनन्तर उस महार्थक यावत् भेंट को लेकर आभ्यन्तर उपस्थानशाला (बैठक) में जहां जितशत्रु राजा बैठा था, वहां आया। वहां दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से जितशत्रु राजा का अभिनन्दन किया और फिर उस महार्थक यावत् उपहार को भेंट किया। तब जितशत्रु राजा ने चित्त सारथी द्वारा भेंट किये गये इस महार्थक यावत् उपहार को स्वीकार किया एवं चित्त सारथी का सत्कार-सम्मान किया और विदा करके विश्राम करने के लिए राजमार्ग पर आवास स्थान दिया। विवेचन- ऊपर के सूत्र में बताया कि श्रावस्ती का राजा जितशत्रु सेयविया के राजा प्रदेशी का अंतेवासी था
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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