SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजप्रश्नीयसूत्र सुगंधवरगंधियातो गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेण घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं ते पदेसे सव्वओ समंता आपूरेमाणा आपूरेमाणा जाव (सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा) चिट्ठति । ६६ १२५— इन नागदन्तों के भी ऊपर अन्य - दूसरी सोलह-सोलह नागदन्तों की पंक्तियां कही हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! पूर्ववर्णित नागदन्तों की तरह ये नागदन्त भी यावत् विशाल गजदन्तों के समान हैं। इन नागदन्तों पर बहुत से रजतमय शींके (छींके.) लटके हैं। इन प्रत्येक रजतमय शीकों में वैडूर्य-मणियों से बनी हुई धूप-घटिकायें रखी हैं। ये धूपघटिकायें काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क, तुरुष्क (लोभान) और सुगन्धित धूप के जलने से उत्पन्न मघमघाती मनमोहक सुगन्ध के उड़ने एवं उत्तम सुरभि गन्ध की अधिकता से गन्धवर्तिका के जैसी प्रतीत होती हैं तथा सर्वोत्तम, मनोज्ञ, मनोहर, नासिका और मन को तृप्तिप्रदायक गन्ध से उस प्रदेश को सब तरफ से अधिवासित करती हुई यावत् अपनी श्री से अतीव- अतीव शोभायमान हो रही हैं। द्वारस्थित पुतलियां १२६— तेसि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलस सालभंजियापरिवाडीओ पन्नत्ताओ, ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ, सुपइट्ठियाओ, सुअलंकियाओ, णाणाविहरागवसणाओ, णाणामल्लपिणद्धाओ, मुट्ठिगिज्झसुमज्झाओ, आमेलगजमलजुयल-वट्टियअब्भुन्नय पीणरइयसंठियपीवरपओहराओ, रत्तावंगाओ, असियकेसीओ, मिउविसयपसत्थ- लक्खणसंवेल्लियग्ग-सिरयाओ ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ वामहत्थग्गहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकडक्ख-चिट्ठिएणं लूसमाणीओ विव चक्खुल्लोयणलेसेहि य अन्नमन्नं खिज्जमांणीओ विव पुढविपरिणामाओ, सासयभावमुवगयाओ, चन्दाणणाओ, चन्दविलासिणीओ, चन्दद्धसमणिडालाओ, चंदाहियसोमदंसणाओ, उक्का विव उज्जोवेमाणाओ, विज्जुघणमिरियसूरदिप्पंततेयअहिययरसन्निकासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासाइयाओ जाव ( दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ ) चिट्ठेति । १२६ – उन द्वारों की दोनों बाजुओं की निशीधिकाओं (बैठकों) में सोलह-सोलह पुतलियों की पंक्तियां हैं। ये पुतलियां विविध प्रकार की लीलायें - ( क्रीड़ायें) करती हुई, सुप्रतिष्ठित - मनोज्ञ रूप से स्थित सब प्रकार आभूषण अलंकारों से शृंगारित, अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे परिधानों वस्त्रों एवं मालाओं से शोभायमान, मुट्ठी प्रमाण (मुट्ठी में समा जाने योग्य) कृश — पतले मध्य भाग (कटि प्रदेश) वाली, शिर पर ऊंचा अंबाड़ा — जूड़ा बांधे हुए और समश्रेणि में स्थित हैं । वे सहवर्ती, अभ्युन्नत — ऊंचे, परिपुष्ट- मांसल, कठोर, भरावदार — पीवर — स्थूल गोलाकार पयोधरों— स्तनों वाली, लालिमा युक्त नयनान्तभाग वाली, सुकोमल, अतीव निर्मल, शोभनीक सघन घुंघराली काली काली कजरारी केशराशि वाली, उत्तम अशोक वृक्ष का सहारा लेकर खड़ी हुईं और बायें हाथ से अग्र शाखा को पकड़े हुए, अर्ध निमीलित नेत्रों की ईषत् वक्र कटाक्ष-रूप चेष्टाओं द्वारा देवों के मनों को हरण करती हुईसी और एक दूसरे को देखकर परस्पर खेद - खिन्न होती हुई -सी, पार्थिवपरिणाम (मिट्टी से बनी ) होने पर भी शाश्वत — नित्य विद्यमान, चन्द्रार्धतुल्य ललाट वाली, चन्द्र से भी अधिक सौम्य कांति वाली, उल्का — खिरते तारे के
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy