SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ औपपातिकसूत्र आजीविका चलाने वाले, तूणइल्ल – तूण नामक तन्तु वाद्य बजाकर आजीविका कमाने वाले, तंबुवीणिक — तुंबवीणा या पूंगी बजाने वाले, तालाच — ताली बजाकर मनोविनोद करने वाले आदि अनेक जनों से वह सेवित थी । आराम-क्रीडावाटिका, उद्यान — बगीचे, कुएं, तालाब, बावड़ी, जल के छोटे-छोटे बाँध——इनसे युक्त थी, नंदनवन - सी लगती थी। वह ऊँची, विस्तीर्ण और गहरी खाई से युक्त थी, चक्र, गदा, भुसुंडि—पत्थर फेंकने का एक विशेष अस्त्र—– गोफिया, अवरोध —— अन्तर - प्राकार — शत्रु सेना को रोकने के लिए परकोटे जैसा भीतरी सुदृढ़ आवरक साधन, शतघ्नी—महायष्टि या महाशिला, जिसके गिराये जाने पर सैकड़ों व्यक्ति दब- कुचल कर मर जाएं और द्वार छिद्र रहित कपाटयुगल के कारण जहाँ प्रवेश कर पाना दुष्कर था। धनुष जैसे टेढ़े परकोटे से वह घिरी हुई थी । उस परकोटे पर गोल आकार के बने हुए कपिशीर्षकों— कंगूरों— भीतर से शत्रु - सैन्य को देखने आदि हेतु निर्मित बन्दर के मस्तक के आकार के छेदों से वह सुशोभित थी। उसके राजमार्ग, अट्टालक — परकोटे के ऊपर निर्मित आश्रय- स्थानों —— गुमटियों, चरिका — परकोटे के मध्य बने हुए आठ हाथ चौड़े मार्गों, परकोटे में बने हुए छोटे द्वारों—बारियों, गोपुरों— नगरद्वारों, तोरणों से सुशोभित और सुविभक्त थे। उसकी अर्गला और इन्द्रकील — गोपुर के किवाड़ों के आगे जड़े हुए नुकीले भाले जैसी कीलें, सुयोग्य शिल्पाचार्यो— निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित थीं । विपणि— हाट - मार्ग, वणिक् क्षेत्र व्यापार क्षेत्र, बाजार आदि के कारण तथा बहुत से शिल्पियों, कारीगरों के आवासित होने के कारण वह सुख-सुविधा पूर्ण थी । तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों, चत्वरों— जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, बर्तन आदि की दुकानों तथा अनेक प्रकार की वस्तुओं से परिमंडित — सुशोभित और रमणीय थी। राजा की सवारी निकलते रहने के कारण उसके राजमार्गों पर भीड़ लगी रहती थी । वहाँ अनेक उत्तम घोड़े, मदोन्मत्त हाथी, रथसमूह, शिविका—पर्देदार पालखियां, स्यन्दमानिका—- पुरुष - प्रमाण पालखियां, यान — गाड़ियां तथा युग्य — पुरातनकालीन गोल्लदेश में सुप्रसिद्ध दो हाथ लम्बे चौड़े डोली जैसे यान – इनका जमघट लगा रहता था। वहाँ खिले हुए कमलों से शोभित जल — जलाशय थे। सफेदी किए हुए उत्तम भवनों से वह सुशोभित, अत्यधिक सुन्दरता के कारण निर्निमेष नेत्रों से प्रेक्षणीय, चित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप मनोज्ञ मन को अपने में रमा लेने वाली तथा प्रतिरूप मन में बस जाने वाली थी। पूर्णभद्र २ तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्थाचिराईए, पुव्वपुरिसपण्णत्ते पोराणे, सद्दिए, वित्तिए, कित्तिए, णाए, सच्छत्ते, सज्झए, सघण्टे, सपडागे, पडागाइपडागमंडिए, सलोमहत्थे, कयवेयड्डिए, लाउल्लोइयमहिए, गोसीस - सरसरत्तचंदण- दद्दरदिण्णपंचगुलितले, उवचियचंदणकलसे, चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए, आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घा - रियमल्लदामकलावे, पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए, कालागुरु-पवरकुंदुरुक्कतुरुक्क-धूव-मघमघंतगंधुद्धयाभिरामे, सुगंधवरगंधगंधिए, गंधवट्टिभू— णड-णट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय- वेलंबग-पवग-कहग-लासग - आइक्खग-लंख - मंख - तूणइल्लतुंबवीणिय- भुयग- मागहपरिगए, बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए, बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे, पाहुणिज्जे, अच्चणिज्जे, वंदणिज्जे, नम॑सणिज्जे, पूयणिज्जे, सक्कारणिज्जे, सम्माणणिज्जे, कल्लाणं, मंगलं,
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy