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प्रस्तुत आगम किस अंग का उपांग है ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए टीका में आचार्य अभयदेव ने लिखा है कि आचारांग का प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा है। उसका यह सूत्र है कि मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊँगा? इस सूत्र में उपपात की चर्चा है, इसलिए यह आगम आचारांग का ही उपांग है।
प्रस्तुत आगम अभयदेववृत्ति के साथ सर्वप्रथम सन् १८७५ में रायबहादुर धनपतसिंह ने कलकत्ता से प्रकाशित किया। उसके बाद १८८० में आगम संग्रह-कलकत्ता से और १९१६ में आगमोदय समिति-बम्बई से अभयदेववृत्ति के साथ प्रकट हुआ है । सन् १८८३ में प्रस्तावना आदि के साथ E. Levmann Lepizip, का प्रकाशन हुआ। आचार्य अमोलकऋषिजी ने हिन्दी अनुवाद सहित इसका संस्करण प्रकाशित किया। सन् १९६३ में मूल हिन्दी अनुवाद के साथ संस्कृति रक्षक, संघ, सैलाना से एक संस्करण प्रकाशित हुआ है। १९५९ में जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से संस्कृत व्याख्या व हिन्दी गुजराती अनुवाद के साथ आचार्य श्री घासीलालजी म. ने संस्करण निकाला है । सन् १९३६ में इसका मात्र मूल पाठ छोटेलाल यति ने जीवन कार्यालय-अजमेर से और पुफ्फभिक्खु ने सुत्तागमे के रूप में छपाया। प्रस्तुत संस्करण और सम्पादन
इस प्रकार समय-समय पर अनेक संस्करण औपपातिक के प्रकाशित हुए हैं, किन्तु आधुनिक दृष्टि से शुद्ध मूल पाठ, प्रांजल भाषा में अनुवाद और आवश्यक स्थलों पर टिप्पण के साथ अभिनव संस्करण की अत्यधिक मांग थी। उस माँग की पूर्ति श्रमण संघ के युवाचार्य महामहिम श्री मधुकरमुनिजी ने करने का भगीरथ कार्य अपने हाथ में लिया और अनेक मूर्धन्य मनीषियों के हार्दिक सहयोग से यह कार्य द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है। प्रश्न-व्याकरण को छोड़ कर शेष दश अंग प्रायः प्रकाशित हो चुके हैं। भगवती जो विराट्काय आगम है, वह भी अनेक भागों में प्रकाशित हो रहा है। प्रस्तुत आगम के साथ युवाचार्यश्री ने उपांग साहित्य को प्रकाशित करने का श्रीगणेश किया है। युवाचार्यश्री प्रकृष्ट प्रतिभा के धनी हैं और साथ ही मेरे परमश्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. के अनन्य सहयोगी और साथी हैं। युवाचार्यश्री के प्रबल प्रयास से यह कार्य प्रगति पर है, यह प्रसन्नता है।
प्रस्तुत आगम के सम्पादक डॉ. छगनलालजी शास्त्री हैं, जिन्होंने पहले उपासकदशांग का शानदार सम्पादन किया है। औपपातिक सूत्र के सम्पादन में भी उनकी प्रबल प्रतिभा यत्र-तत्र मुखरित हुई है। अनुवाद मूल विषय को स्पष्ट करने वाला है। जहाँ कहीं उन्होंने विवेचन किया है, उनके गम्भीर पाण्डित्य को प्रदर्शित कर रहा है। तथा सम्पादनकलामर्मज्ञ पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल का गहन श्रम भी इसमें उजागर हुआ है।
मुझे पूर्ण विश्वास है प्रस्तुत आगम जन-जन के अन्तर्मानस में त्याग-वैराग्य की ज्योति जागृत करेगा। भौतिकवाद
शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं, कृता वृत्तिः ॥ २॥ अणहिलपाटक नगरे श्रीमद्रोणाख्यसूरिमुख्येन ।
पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण, संशोधिता चेयम् ॥३॥ १४४. इदं चोपाङ्ग वर्तते, आचारांगस्य हि प्रथममध्ययनं शस्त्रपरिज्ञा, तस्याद्योद्देशके सूत्रमिदम् 'एवमेगेसिं' नो नायं भवइ,
अत्थि वा मे आया उववाइए, नत्थि वा मे आया उववाइए, के वा अहं आसी ? के वा इह (अहं) चुए (इओ चुओ) पेच्चा इह भविस्सामि इत्यादि, इह च सत्रे यदौपपातिकत्वमात्मनो निर्दिष्टं तदिह प्रपञ्च्यत इत्यर्थतोऽङ्गस्य समीपभावेनेदमुपाङ्गम्।
- औपपातिक अभयदेववृत्ति [३६]