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________________ हजार आठ है। तीर्थंकर जैन दृष्टि से एक विलक्षण व्यक्तित्व के धनी होते हैं, सामान्य व्यक्ति में एकाध शुभ लक्षण होता है। उससे बढ़ कर व्यक्ति में बत्तीस लक्षण पाये जाते हैं। उससे भी उत्तम व्यक्ति में एक सौ आठ लक्षण होते हैं। लौकिक सम्पदा के उत्कृष्ट धनी चक्रवर्ती में एक हजार आठ लक्षण होते हैं पर वे कुछ अस्पष्ट होते हैं, जबकि तीर्थकर में वे पूर्ण स्पष्ट होते हैं। लॉ ने बुद्ध के बाईस लक्षण कैसे कहे हैं ? यह चिन्तनीय है। तपः एक विश्लेषण . औपपातिक में श्रमणों के तप का सजीव चित्रण हुआ है। तप साधना का ओज है तेज है और शक्ति है। तप:शून्य साधना निष्प्राण है। साधना का भव्य प्रासाद तप की सुदृढ़ नींव पर आधारित है। साधना-प्रणाली, चाहे वह पूर्व में विकसित हुई हो अथवा पश्चिम में फली और फूली हो, उसके अन्तस्तल में तप किसी न किसी रूप में रहा हुआ है। तप में त्याग की भावना प्रमुख होती है और उसी से प्रेरित होकर साधक प्रयास करता है। भारतीय सांस्कृतिक जीवन का हम अध्ययन करें तो यह सूर्य के प्रकाश की भाँति स्पष्ट हए बिना नहीं रहेगा कि चाहे भगवान् महावीर की अध्यात्मवादी विचार-धारा रही हो या भौतिकवादी अजितकेसकम्बलि या नियतिवादी गोशालक की विचार-धारा रही हो, सभी में तप के स्वर झंकृत हुए हैं, किन्तु साधना-पद्धतियों में तप के लक्ष्य और स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ विचारभेद अवश्य रहा है। श्री भरतसिंह उपाध्याय का यह अभिमत है कि जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त और महत्त्वपूर्ण है, वह सब तपस्या से ही संभूत है। प्रत्येक साधनाप्रणाली चाहे वह अध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक हो, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित है।५ तप के सम्बन्ध में अनचिन्तन करते हए सप्रसिद्ध गांधीवादी विचारक काका कालेलकर ने लिखा है-"बद्धकालीन भिक्षुओं की तपस्या के परिणामस्वरूप ही अशोक के साम्राज्य का और मौर्यकालीन संस्कृति का विस्तार हो पाया। शंकराचार्य की तपश्चर्या से हिन्दू धर्म का संस्करण हुआ। महावीर की तपस्या से अहिंसा धर्म का प्रचार हुआ और चैतन्य महाप्रभु, जो मुखशुद्धि के हेतु एक हर्र भी मुँह में नहीं रखते थे, उनके तप से बंगाल में वैष्णव संस्कृति विकसित हुई।१६" और महात्मा गाँधी के फलस्वरूप ही भारत सर्वतंत्र स्वतन्त्र हुआ है। भगवान् महावीर स्वयं उग्र तपस्वी थे। अत: उनका शिष्यवर्ग तप से कैसे अछूता रह सकता था? वह भी उग्र तपस्वी था। जैन तप-विधि की यह विशेषता रही है कि वह आत्म-परिशोधन-प्रधान है। देहदण्ड किया नहीं जाता, वह सहज होता है। जैसे—स्वर्ण की विशुद्धि के लिए उसमें रहे हुए विकृत तत्त्वों को तपाते हैं, पात्र को नहीं, वैसे ही आत्मशुद्धि के लिए आत्म-विकारों को तपाया जाता है न कि शरीर को। शरीर तो आत्मा का साधन है, इसलिए वह तप जाता है, तपाया नहीं जाता । तप में पीड़ा हो सकती है किन्तु पीड़ा की अनुभूति नहीं होनी चाहिए। पीड़ा शरीर से सम्बन्धित है और अनुभूति आत्मा से। अतः तप करता हुआ भी साधक दु:खी न होकर आह्लादित होता है। आधुनिक युग के सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने 'दमन' की कटु आलोचना की है। उसने दमन को सभ्य समाज का सबसे बड़ा अभिशाप कहा है। उसका अभिमत है कि सभ्य संसार में जितनी भी विकृतियाँ हैं, मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ हैं. जितनी हत्यायें और आत्महत्यायें होती हैं, जितने लोग पागल और पाखण्डी बनते हैं. इच्छाओं का दमन है। इच्छाओं के दमन से अन्तर्द्वन्द्व पैदा होता है, जिससे मानव रुग्ण, विक्षिप्त और भ्रष्ट बन जाता है। इसलिए फ्रायड ने दमन का निषेध किया है। उसने उन्मुक्त भोग का उपाय बताया है। पर उसका सिद्धान्त भारतीय आचार में स्वीकृत नहीं है। वह तो उस दवा के समान है जो सामान्य रोग को मिटाकर भयंकर रोग पैदा करती है। यह सत्य है कि इच्छाओं का दमन हानिकारक है पर उससे कहीं अधिक हानिकारक और घातक है उन्मुक्त भोग । उन्मुक्त भोग का परिणाम अमेरिका आदि ५५. बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन प्र.सं. पृ.७१-७२ ५६. जीवन साहित्य-द्वितीय भाग, पृ. ११७-११८ [२३]
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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