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________________ १७२ औपपातिकसूत्र १६४- ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी अपने ठीक मध्य भाग में आठ योजन क्षेत्र में आठ योजन मोटी है। तत्पश्चात् मोटेपन में क्रमशः कुछ कुछ कम होती हुई सबसे अन्तिम किनारों पर मक्खी की पाँख से पतली है। उन अन्तिम किनारों की मोटाई अंगुल के असंख्यातवें भाग के तुल्य है। १६५-ईसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेजा पण्णत्ता, तं जहा ईसी इ वा, ईसीपब्भारा इ वा, तणू इ वा, तणुतणू इ वा, सिद्धी इ वा, सिद्धालए इ वा, मुत्ती इ वा, मुत्तालए इ वा, लोयग्गे इ वा, लोयग्गथूभिगा इ वा, लोयग्गपडिबुज्झणा इ वा, सव्वपाण-भूय-जीव-सत्तसुहावहा इ वा। १६५-- ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम बतलाये गये हैं, जो इस प्रकार हैं १. ईषत्, २. ईषत्प्राग्भारा, ३. तनु, ४. तनुतनु, ५. सिद्धि, ६. सिद्धालय, ७. मुक्ति, ८. मुक्तालय, ९. लोकाग्र, १०. लोकाग्रस्तूपिका, ११. लोकाग्रप्रतिबोधना, १२. सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावहा। १६६-ईसीपब्भारा णं पुढवी सेया आयंसतलविमल-सोल्लिय-मुणाल-दगरय-तुसार-गोक्खीरहारवण्णा, उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया, सव्वजुणसुवण्णयमई, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्ठा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, समरीचिया, सुप्पभा, पासादीया, दरिसणिजा, अभिरूवा, पडिरूवा। १६६- ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी दर्पणतल के जैसी निर्मल, सोल्लिय पुष्प, कमलनाल, जलकण, तुषार, गाय के दूध तथा हार के समान श्वेत वर्णयुक्त है। वह उलटे छत्र जैसे आकार में अवस्थित है—उलटे किए हुए छत्र जैसा उसका आकार है। वह अर्जुन स्वर्ण-श्वेत स्वर्ण—अत्यधिक मूल्य युक्त श्वेत धातुविशेष जैसी द्युति लिए हुए है। वह आकाश या स्फटिक—बिल्लौर' जैसी स्वच्छ, श्लक्ष्ण कोमल परमाणु-स्कन्धों से निष्पन्न होने के कारण कोमल तन्तुओं से बुने हुए वस्त्र के समान मुलायम, लष्ट सुन्दर, ललित आकृतियुक्त, घृष्ट तेज शाण पर घिसे हुए पत्थर की तरह मानो तराशी हई. मष्ट सकोमल शाण पर घिस कर मानो पत्थर की तरह संवारी हई. नीरज रजरहित, निर्मल—मलरहित, निष्पंक शोभायुक्त, समरीचिका सुन्दर किरणों से प्रभा से युक्त, प्रासादीय—चित्त को प्रसन्न करनेवाली, दर्शनीय—देखने योग्य, अभिरूप—मनोज्ञ—मन को अपने में रमा लेने वाली तथा प्रतिरूप—मन में बस जानेवाली है। १६७- ईसीपब्भाराए णं पुढवीए सेयाए जोयणमि लोगंते। तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे, तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया, अपजवसिया अणेगजाइजरामरणजणियवेयणं संसारकलंकलीभावपुणब्भवगब्भवासवसहीपवंचमइक्कंता सासयमणागयद्धं चिटुंति। १६७- ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के तल से उत्सेधांगुल (माप) द्वारा एक योजन पर लोकान्त है। उस योजन के ऊपर के कोस के छठे भाग पर सिद्ध भगवान्, जो सादि-मोक्षप्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदियुक्त तथा १. संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर पृष्ठ ७२६
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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