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________________ १७० औपपातिकसूत्र १५७ - जीवा णं भंते ! सिझमाणा कयामि संठाणे सिझंति ? गोयमा ! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे सिझंति।। १५७- भगवन्! सिद्ध होते हुए जीव किस संस्थान (दैहिक आकार) में सिद्ध होते हैं ? गौतम! छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान से सिद्ध हो सकते हैं। १५८- जीवा णं भंते ! सिझमाणा कबरंमि उच्चत्ते सिझंति ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचधणुसइए सिझंति। १५८- भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव कितनी अवगाहना—ऊँचाई में सिद्ध होते हैं ? गौतम! जघन्य कम से कम सात हाथ तथा उत्कृष्ट अधिक से अधिक पाँच सौ धनुष की अवगाहना में सिद्ध होते हैं। विवेचन-सिद्ध होने वाले जीवों की सूत्र में जो अवगाहना प्ररूपित की गई है, वह तीर्थंकरों की अपेक्षा से समझना चाहिए। भगवान् महावीर जघन्य सात हाथ की और भ. ऋषभ उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की अवगाहना से सिद्ध हुए। सामान्य केवलियों की अपेक्षा यह कथन नहीं है। क्योंकि कूर्मापुत्र दो हाथ की अवगाहना से सिद्ध हुए। मरुदेवी की अवगाहना पांच सौ धनुष से अधिक थी। १५९-जीवा णं भंते ! सिझमाणा कयरम्मि आउए सिझंति ? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगट्ठवासाउए, उक्कोसेणं पुव्वकोडियाउए सिझंति। १५९ - भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव कितने आयुष्य में सिद्ध होते हैं ? गौतम! कम से कम आठ वर्ष से कुछ अधिक आयुष्य में तथा अधिक से अधिक करोड़ पूर्व के आयुष्य में सिद्ध होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आठ वर्ष या उससे कम की आयु वाले और क्रोड पूर्व से अधिक की आयु के जीव सिद्ध नहीं होते हैं। सिद्धों का परिवास १६०- अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ? णो इणढे समढे, एवं जाव अहे सत्तमाए। १६०- भगवन्! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी प्रथम नारक भूमि के नीचे सिद्ध निवास करते हैं ? नहीं, ऐसा अर्थ अभिप्राय ठीक नहीं है। रत्नप्रभा के साथ-साथ शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा पङ्कप्रभा, धूम्रप्रभा, तमःप्रभा तथा तमस्तमःप्रभा—पहली से सातवीं तक सभी नारकभूमियों के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए अर्थात् उनके नीचे सिद्ध निवास नहीं करते। १६१- अस्थि गं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परिवसंति ? । णो इणढे समढे, एवं सव्वेसिं पुच्छा ईसाणस्स, सणंकुमारस्स जाव (माहिंदस्स, बंभस्स, १. १. समचतुरन, २. न्याग्रोधपरिमण्डल, ३. सादि, ४. वामन, ५. कुब्ज, ६. हुंड।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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