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________________ १६८ औपपातिकसूत्र इट्ठे सट्टे । १५१ – भगवन्! क्या सयोगी — मन, वचन तथा काय योग से युक्त सिद्ध होते हैं ? (बुद्ध होते हैं ? मुक्त होते हैं ? परिनिवृत्त होते हैं—परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं ?) सब दुःखों का अन्त करते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता । १५२ से णं पुव्वामेव सण्णिस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्ज - गुणपरिहीणं पढमं मणजोगं निरुंभइ, तयाणंतरं च णं बिदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं विइयं बड़जोगं निरुंभइ, तयाणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं तइयं कायजोगं णिरुंभइ । १५२ - वे सबसे पहले पर्याप्त—– आहार आदि पर्याप्ति युक्त, संज्ञी —— समनस्क पंचेन्द्रिय जीव के जघन्य मनोयोग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन मनोयोग का निरोध करते हैं । अर्थात् इतना मनोव्यापार उनके बाकी रहता है। उसके बाद पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव के जघन्य वचन - योग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन वचन - योग का निरोध करते हैं । तदनन्तर अपर्याप्त—आहार आदि पर्याप्तिरहित सूक्ष्म पनक— लीलन - फूलन जीव के जघन्य योग के नीचे के स्तर से असंख्यात गुणहीन काय - योग का निरोध करते हैं । १५३ से णं एएणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरुंभइ, मणजोगं णिरुंभित्ता वयजोगं णिरुंभइ, वयजोगं णिरुंभित्ता कायजोगं णिरुंभइ, कायजोगं णिरुंभित्ता जोगनिरोहं करेइ, जोगनिरोहं करेत्ता अजोगत्तं पाउणइ, अजोगत्तणं पाउणित्ता ईसिं हस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ, पुव्वरइयगुणसेढियं च 'कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेज्जेहिं गुणसेढीहिं अणंते कम्मंसे खवयंते, वेयणिज्जाउयणामगोए इच्चेते चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ, खवित्ता ओरालियतेयकम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता उज्जुसेढीपडिवण्णे अफुसमाणगई उड्डुं एक्कसमएणं अविग्गहेण गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ । १५३ – इस उपाय या उपक्रम द्वारा वे पहले मनोयोग का निरोध करते हैं । मनोयोग का निरोध कर वचनयोग का निरोध करते हैं । वचन - योग का निरोध कर काययोग का निरोध करते हैं । काययोग का निरोध कर सर्वथा योगनिरोध करते हैं— मन, वचन तथा शरीर से सम्बद्ध प्रवृत्तिमात्र को रोकते हैं। इस प्रकार योग-निरोध कर वे अयोगत्व——–अयोगावस्था प्राप्त करते हैं। अयोगावस्था प्राप्त कर ईषत्स्पृष्ट पांच ह्रस्व अक्षर -अ, इ, उ, ऋ, लृ के उच्चारण के असंख्यात कालवर्ती अन्तर्मुहूर्त तक होने वाली शैलेशी अवस्था — मेरुवत् अप्रकम्प दशा प्राप्त करते हैं। उस शैलेशी - काल में पूर्वरचित गुण-श्रेणी के रूप में रहे कर्मों को असंख्यात गुण-श्रेणियों में अनन्त कर्मांशों के रूप में क्षीण करते हुए वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र इन चारों कर्मों का युगपत् — एक साथ क्षय करते हैं। इन्हें क्षीण कर औदारिक, तैजस तथा कार्मण शरीर का पूर्ण रूप से परित्याग कर देते हैं। वैसा कर ऋजु श्रेणिप्रतिपन्न हो— आकाश-प्रदेशों की सीधी पंक्ति का अवलम्बन कर अस्पृश्यमान गति द्वारा एक समय में ऊर्ध्व-गमन कर— ऊँचे पहुँच साकारोपयोग — ज्ञानोपयोग में सिद्ध होते हैं ।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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