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________________ परिव्राजकों का उपपात १३१ उन परिव्राजकों के लिए मागध तोल के अनुसार एक आढक जल लेना कल्पता है। वह भी बहता हुआ हो, एक जगह बंधा हुआ या बन्द नहीं अर्थात् बहती हुई नदी का एक आढक-परिमाण जल उनके लिए कल्प्य है, तालाब आदि का बन्द जल नहीं। (वह भी यदि स्वच्छ हो तभी ग्राह्य है, कीचड़युक्त हो तो ग्राह्य नहीं है। स्वच्छ होने के साथ-साथ वह बहुत प्रसन्न बहुत साफ और निर्मल हो तभी ग्राह्य है अन्यथा नहीं। वह परिपूत वस्त्र से छाना हुआ हो तो उनके लिए कल्प्य है, अनछाना नहीं। वह भी यदि दिया गया हो—कोई दाता उन्हें दे, तभी ग्राह्य है, बिना दिया हुआ नहीं।) वह भी केवल हाथ, पैर, चरू—भोजन का पात्र, चमस–काठ की कुड़छी या चम्मच धोने के लिए ग्राह्य है, पीने के लिए या स्नान करने के लिए नहीं। विवेचन आयुर्वेद के ग्रन्थों में प्राचीन माप-तोल के सम्बन्ध में चर्चाएं हैं। प्राचीन काल में मागधमान तथा कलिंगमान—दो तरह के माप-तोल प्रचलित थे। मागधमान का अधिक प्रचलन और मान्यता थी। विशेष रूप से मगध (दक्षिण विहार) में प्रचलित होने के कारण यह मागधमान कहलाता था। शताब्दियों तक मगध प्रशासनिक दृष्टि से उत्तर भारत का मुख्य केन्द्र रहा। अतएव मागधमान का मगध के अतिरिक्त भारत के अन्यान्य प्रदेशों में भी प्रचलन हुआ। भावप्रकाश में मान के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है। . वहाँ महर्षि चरक को आधार मानकर मागधमान का विवेचन करते हुए परमाणु से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए मानों—परिमाणों की चर्चा है। वहाँ बतलाया गया है "तीस परमाणुओं का एक त्रसरेणु होता है। उसे वंशी भी कहा जाता है। जाली में पड़ती हुई सूर्य की किरणों में जो छोटे-छोटे सूक्ष्म रजकण दिखाई देते हैं, उनमें प्रत्येक की संख्या त्रसरेणु या वंशी है। छह त्रसरेणु की एक मरीचि होती है। छह मरीचि की एक राजिका या राई होती है। तीन राई का एक सरसों, आठ सरसों का एक जौ, चार जौ की एक रत्ती, छह रत्ती का एक मासा होता है। मासे के पर्यायवाची हेम और धानक भी हैं। चार मासे का एक शाण होता है, धरण और टंक इसके पर्यायवाची हैं। दो शाण का एक कोल होता है। उसे क्षुद्रक, वटक एवं द्रक्षण भी कहा जाता है। दो कोल का एक कर्ष होता है। पाणिमानिक, अक्ष, पिचु, पाणितल, किंचित्पाणि, तिन्दुक, विडाल-पदक, षेडशिका, करमध्य, हंसपद, सुवर्ण, कवलग्रह तथा उदुम्बर इसके पर्यायवाची हैं। दो कर्ष का एक अर्धपल (आधा पल) होता है। उसे शुक्ति या अष्टमिक भी कहा जाता है। दो शुक्ति का एक पल होता है। मुष्टि, आम्र, चतुर्थिका, प्रकुंच, षोडशी तथा बिल्व भी इसके नाम हैं। दो पल की एक प्रसृति होती है, उसे प्रसृत भी कहा जाता है। दो प्रसृतियों की एक अंजलि होती है। कुडव, अर्धशरावक तथा अष्टमान भी उसे कहा जाता है। दो कुडब की एक मानिका होती है। उसे शराव तथा अष्टपल भी कहा जाता है। दो शराव का एक प्रस्थ होता है अर्थात् प्रस्थ में ६४ तोले होते हैं। पहले ६४ तोले का ही सेर माना जाता था, इसलिए प्रस्थ को सेर का पर्यायवाची माना जाता है। चार प्रस्थ का एक आढक होता है, उसको भाजन, कांस्य-पात्र तथा चौसठ पल का होने से चतुःषष्टिपल भी कहा जाता है। चरकस्य मतं वैद्यैराधैर्यस्मान्मतं ततः । विहाय सर्वमानानि मागधं मानमुच्यते ॥ त्रसरेणुर्बुधैः प्रोक्तस्त्रिंशता परमाणुभिः । त्रसरेणुस्तु पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते ॥ जालान्तरगतैः सूर्यकरैर्वशी विलोक्यते । षड्वंशीभिर्मरीचिः स्यात्ताभिः षभिश्च राजिका ॥ तिसृभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधैः । यवोऽष्टसर्षपैः प्रोक्तो गुञ्चा स्यात्तच्चतुष्टयम् ॥
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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