SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ औपपातिकसूत्र ७७- वे परिव्राजक ऋक्, यजु, साम, अथर्वण—इन चारों वेदों, पाँचवें इतिहास, छठे निघण्टु के अध्येता थे। उन्हें वेदों का सांगोपांग रहस्य बोधपूर्वक ज्ञान था। वे चारों वेदों के सारक–अध्यापन द्वारा सम्प्रवर्तक अथवा स्मारक औरों को स्मरण कराने वाले, पारग वेदों के पारगामी, धारक उन्हें स्मृति में बनाये रखने में सक्षम तथा वेदों के छहों अंगों के ज्ञाता थे। वे षष्टितन्त्र में विशारद या निपुण थे। संख्यान-गणित विद्या, शिक्षा—ध्वनि विज्ञान वेद मन्त्रों के उच्चारण के विशिष्ट विज्ञान, कल्प–याज्ञिक कर्मकाण्डविधि, व्याकरण शब्दशास्त्र, छन्द–पिंगलशास्त्र, निरुक्त–वैदिक शब्दों के निर्वचनात्मक या व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या-ग्रन्थ, ज्योतिष शास्त्र तथा अन्य ब्राह्मण्य ब्राह्मणों के लिए हितावह शास्त्र अथवा ब्राह्मण-ग्रन्थ वैदिक कर्मकाण्ड के प्रमुख विषय में विद्वानों के विचारों के संकलनात्मक ग्रन्थ इन सब में सुपरिनिष्ठित—सुपरिपक्व ज्ञानयुक्त होते हैं। ७८- ते णं परिव्वाया दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणा, पण्णवेमाणा, परूवेमाणा विहरंति। जं णं अम्हं किं चि असुई भवइ, तं णं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं सुई भवति। एवं खलु अम्हे चोक्खा, चोक्खायारा, सुई, सुइसमायारा भवित्ता अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो। ७८-वे परिव्राजक दान-धर्म, शौच-धर्म, दैहिक शुद्धि एवं स्वच्छतामूलक आचार तीर्थाभिषेक तीर्थस्थान का जनसमुदाय में आख्यान करते हुए कथन करते हुए, प्रज्ञापन करते हुए विशेष रूप से समझाते हुए, प्ररूपण करते हुए युक्तिपूर्वक स्थापित या सिद्ध करते हुए विचरण करते हैं। उनका कथन है, हमारे मतानुसार जो कुछ भी अशुचि-अपवित्र प्रतीत हो जाता है, वह मिट्टी लगाकर जल से प्रक्षालित कर लेने पर-धो लेने पर पवित्र हो जाता है। इस प्रकार हम स्वच्छ निर्मल देह एवं वेष युक्त तथा स्वच्छाचार—निर्मल आचारयुक्त हैं, शुचि–पवित्र, शुच्याचार—पवित्राचार युक्त हैं, अभिषेक स्नान द्वारा जल से अपने आपको पवित्र कर निर्विघ्नतया स्वर्ग जायेंगे। ७९- तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अगडं व तलायं वा नई वा वाविं वा पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालियं वा सरं वा सागरं वा ओगाहित्तए, णण्णत्थ अद्धाणगमणेणं। णो कप्पइ सगडं वा जाव (रहं वा जाणं वा जुग्गं वा गिल्लि वा थिल्लि वा पवहणं वा सीयं वा) संदमाणियं वा दुरूहित्ता णं गच्छित्तए। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ आसं वा हत्थिं वा उट्टे वा गोणं वा महिसं वा खरं वा दुरूहित्ता णं गमित्तए, णण्णत्थ बलाभिओगेणं। तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ नडपेच्छा इ वा जाव (नट्टगप्पेच्छा इ वा, जल्लपेच्छा इवा, मल्लपेच्छा इवा, मुट्ठियपेच्छा इवा, वेलंबयपेच्छा इवा, पवगपेच्छा इवा, कहगपेच्छा इवा, लासगपेच्छा इवा, आइक्खगपेच्छा इवा, लंखपेच्छा इ वा, मंखपेच्छा इ वा, तूणइल्लपेच्छा इ वा, तुंबवीणियपेच्छा इ वा, भुयगपेच्छा इ वा,) मागहपेच्छा इ वा पेच्छित्तए। तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ हरियाणं लेसणया वा, घट्टणया वा, थंभणया वा लूसणया वा, उप्पाडणया वा करित्तए। तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ इत्थिकहा इ वा, भत्तकहा इ वा, देसकहा इ वा, रायकहा इ वा, चोरकहा इ वा, जणवयकहा इ वा, अणत्थदंडे करित्तए। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अयपायाणि वा, तउअपायाणि वा, तंबपायाणि वा, जसदपायाणि वा, सीसगपायाणि वा, रुप्पपायाणि वा, सुवण्णपायाणि वा, अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy