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विनय
यह चारित्र - विनय है
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मनोविनय क्या है— कितने भेद हैं ? मनोविनय दो प्रकार का कहा गया है—
१. प्रशस्त मनोविनय, २. अप्रशस्त मनोविनय ।
अप्रशस्त मनोविनय क्या है ?
जो मन सावद्य–पाप या गर्हित कर्म युक्त, सक्रिय — प्राणातिपात आदि आरम्भ क्रिया सहित, कर्कश, कटुक—अपने लिए तथा औरों के लिए अनिष्ट, निष्ठर — कठोर — मृदुतारहित, परुष स्नेहरहित — सूखा, आस्रवकारी— अशुभ कर्मग्राही, छेदकर —– किसी के हाथ, पैर आदि अंग तोड़ डालने का दुर्भाव रखनेवाला, भेदकर— नासिका आदि अंग काट डालने का बुरा भाव रखने वाला, परितापनकर — प्राणियों को सन्तप्त, परितप्त करने के भाव रखने वाला, उपद्रवणकर — मारणान्तिक कष्ट देने अथवा धन-सम्पत्ति हर लेने का बुरा विचार रखनेवाला, भूतोपघातिक— जीवों का घात करने का दुर्भाव रखने वाला होता है, वह अप्रशस्त मन मनःस्थिति लिए रहना अप्रशस्त मनोविनय है। वैसा मन धारण नहीं करना चाहिए।
। वैसी
प्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ?
जैसे अप्रशस्त मनोविनय का विवेचन किया गया है, उसी के आधार पर प्रशस्त मनोविनय को समझना चाहिए। अर्थात् प्रशस्त मन, अप्रशस्त मन से विपरीत होता है। वह असावद्य, निष्क्रिय, अकर्कश, अकटुक- इष्ट— मधुर, अनिष्ठर—मृदुल—कोमल, अपरुष स्निग्ध स्नेहमय, अनास्त्रवकारी, अछेदकर, अभेदकर, अपरितापनकर, अनुपद्रवणकर—दयार्द्र, अभूतोपघातिक — जीवों के प्रति करुणा, शील—– सुखकर होता है ।
वचन - विनय को भी इन्हीं पदों से समझना चाहिए। अर्थात् वचन - विनय अप्रशस्त वचन - विनय तथा प्रशस्त-वचन- विनय के रूप में दो प्रकार है । अप्रशस्त मन तथा प्रशस्त मन के विशेषण क्रमशः अप्रशस्त वचन तथा प्रशस्त वचन के साथ जोड़ देने चाहिए।
यह वचन - विनय का विश्लेषण है ।
काय-विनय क्या है— कितने प्रकार का है ? काय-विनय दो प्रकार का बतलाया गया है
१. प्रशस्त काय - विनय, २. अप्रशस्त काय-विनय ।
अप्रशस्त काय-विनय क्या है—उसके कितने भेद हैं ?
अप्रशस्त काय-विनय के सात भेद हैं, जो इस प्रकार हैं
१. अनायुक्त गमन — उपयोग —— जागरूकता या सावधांनी बिना चलना ।
२. अनायुक्त स्थान —— बिना उपयोग स्थित होना —— ठहरना, खड़ा होना ।
३. अनायुक्त निषीदन— बिना उपयोग बैठना ।
४. अनायुक्त त्वग्वर्तन— बिना उपयोग बिछौने पर करवट बदलना, सोना।
५. अनायुक्त उल्लंघन — बिना उपयोग कर्दम आदि का अतिक्रमण करना — कीचड़ आदि लांघना ।
६. अनायुक्त प्रलंघन — बिना उपयोग बारबार लांघना ।
७. अनायुक्त सर्वेन्द्रियकाययोग - योजनता — बिना उपयोग सभी इन्द्रियों तथा शरीर को योगयुक्त करनाविविध प्रवृत्तियों में लगाना ।