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औपपातिकसूत्र ज्ञान—मतिज्ञान-विनय, २. श्रुतज्ञान-विनय, ३. अवधिज्ञान-विनय, ४. मनःपर्यवज्ञान-विनय, ५. केवलज्ञान-विनय। इन ज्ञानों की यथार्थता स्वीकार करते हुए इनके लिए विनीत भाव से यथाशक्ति पुरुषार्थ या प्रयत्न करना। दर्शन-विनय
दर्शन-विनय क्या है उसके कितने प्रकार हैं ? दर्शन-विनय दो प्रकार का बतलाया गया है—१. शुश्रूषाविनय, २. अनत्याशातना-विनय ।
शुश्रूषा-विनय क्या है—उसके कितने प्रकार हैं ? शुश्रूषा-विनय अनेक प्रकार का बतलाया गया है, जो इस प्रकार है
अभ्युत्थान— गुरुजनों या गुणीजनों के आने पर उन्हें आदर देने हेतु खड़े होना। आसनाभिग्रह- गुरुजन जहाँ बैठना चाहें वहाँ आसन रखना। आसन-प्रदान— गुरुजनों को आसन देना।
गुरुजनों का सत्कार करना, सम्मान करना, यथाविधि वन्दन-प्रणमन करना, कोई बात स्वीकार या अस्वीकार करते समय हाथ जोड़ना, आते हुए गुरुजनों के सामने जाना, बैठे हुए गुरुजनों के समीप बैठना, उनकी सेवा करना, जाते हुए गुरुजनों को पहुँचाने जाना । यह शुश्रूषा-विनय है। अनत्याशातना-विनय
अनत्याशातना-विनय क्या है उसके कितने भेद हैं ? अनत्याशातना-विनय के पैंतालीस भेद हैं। वे इस प्रकार हैं
१. अर्हतों की आशातना नहीं करना- आत्मगुणों का आशातन—नाश करने वाले अवहेलना पूर्ण कार्य नहीं करना।
२. अर्हत्-प्रज्ञप्त— अर्हतों द्वारा बतलाये गये धर्म की आशातना नहीं करना। ३. आचार्यों की आशातना नहीं करना। ४. उपाध्यायों की आशातना नहीं करना । ५. स्थविरों— ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध, वयोवृद्ध श्रमणों की आशातना नहीं करना। ६.कुल की आशातना नहीं करना। ७. गण की आशातना नहीं करना। ८. संघ की आशातना नहीं करना। ९. क्रियावान् की आशातना नहीं करना।
१०. सांभोगिक- जिसके साथ वन्दन, नमन, भोजन आदि पारस्परिक व्यवहार हों, उस गच्छ के श्रमण या समान आचारवाले श्रमण की आशातना नहीं करना।
११. मति-ज्ञान की आशातना नहीं करना। १२. श्रुत-ज्ञान की आशातना नहीं करना। १३. अवधि-ज्ञान की आशातना नहीं करना। १४. मनःपर्यव-ज्ञान की आशातना नहीं करना।