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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी कामभोगों को भोगने में समर्थ न रहा। अतः अन्य किसी समय उस राजा ने उज्झितकुमार को कामध्वजा गणिका के स्थान से निकलवा दिया और कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदारप्रधान विषयभोगों का उपभोग करने लगा।
__२२–तए णं से उझियए दारय काम झयाए गणियाए गिहाओ निच्छुभमाणे कामझयाए गणिआए मुच्छिए, गिद्धे, गढिए, अझोववन्ने अन्नत्थ कत्थइ सुइं च रइं च धिइं च अविन्दमाणे तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तयप्पियकरणे तब्भावणाभाविए कामज्झयाए गणियाए बहूणि अन्तराणि य छिड्ढाणि य पडिजागरमाणे-पडिजागरमाणे विहरइ। तए णं से उज्झियए दारए अन्नया कयाइ कामज्झयं गणियं अंतरं लभेइ, लभित्ता कामज्झयाए गणियाए गिहं रहसियं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता, कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ।
२२—तदनन्तर कामध्वजा गणिका के घर से निकाले जाने पर कामध्वजा गणिका में मूछित (उसके ही ध्यान में मूढ़-पागल बना हुआ) गृद्ध (उस वेश्या की ही आकांक्षा इच्छा रखने वाला) ग्रथित (उसके ही स्नेहजाल में जकड़ा हुआ) और अध्युपपन्न (उस वेश्या की ही चिन्ता में आसक्त रहने वाला) वह उज्झितक कुमार अन्यत्र कहीं भी स्मृति स्मरण, रति-प्रीति व धृति—मानसिक शान्ति को प्राप्त न करता हुआ, उसी में चित्त क मन को लगाए हुए, तद्विषयक परिणामवाला, तद्विषयक अध्यवसाययोगक्रिया, उसी सम्बन्धी प्रयत्न-विशेष वाला, उसकी ही प्राप्ति के लिए उद्यत, उसी में मन वचन और इन्द्रियों को समर्पित करने वाला, उसी की भावना से भावित होता हुआ कामध्वजा वेश्या के अनेक अन्तर (ऐसा अवसर कि जिस समय राजा का आगमन न हो) छिद्र (राज-परिवार का कोई व्यक्ति भी न हो) व विवर (कोई सामान्य पुरुष भी जिस समय न हो) की गवेषणा करता हुआ जीवनयापन कर रहा था।
तदनन्तर वह उज्झितक कुमार किसी अन्य समय में कामध्वजा गणिका के पास जाने का अवसर प्राप्त कर गुप्तरूप से उसके घर में प्रवेश करके कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विषयभोगों का उपभोग करता हुआ जीवनयापन करने लगा।
२३–इमंच णं विजयमित्ते राया हाए जाव(कयबलिकम्मे कयकोअमंगल ) पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए मणुस्सवागुरापरिक्खित्ते जेणेव कामज्झयाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तत्थ णं उज्झियए दारए कामज्झयाए गणियाइ सद्धिं उरालाई भोग-भोगाइं जाव विहरमाणं पासइ, पसित्ता आसुरुत्ते रुठे, कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियभिउडिं निडाले साह? उज्झियगंदारगं पुरसेहिं गिण्हावेइ, गेण्हावित्ता अट्ठि-मुट्टि-जाणु-कोप्पर-पहार - संभग्ग-महियगत्तं करेइ, करेत्ता अवओडयबन्धणं करेइ, करेत्ता एएणं विहाणेणं वज्झं आणवेइ।
एवं खलु, गोयमा! उज्झियए दारए पुरापोराणाणं कम्माणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ।
२३–इधर किसी समय विजयमित्र नरेश, स्नान, बलिकर्म, कौतुक, मंगल (दुष्ट स्वप्नों के फल को विनष्ट करने के लिये) प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक एवं मांगलिक कार्य करके सर्व अलंकारों से अलंकृत हो, मनुष्यों के समूह से घिरा हुआ कामध्वजा वेश्या के घर गया। वहाँ उसने