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________________ जो पुद्गल-परमाणु कर्म रूप में परिणत होते हैं, उन्हें कर्मवर्गणा कहते हैं और जो शरीररूप में परिणत होते हैं उन्हें नोकर्म-वर्गणा कहते हैं। लोक इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। शरीर पौद्गलिक है, उसका कारण कर्म है, अतः वह भी पौद्गलिक है। पौद्गलिक कार्य का समवायी कारण पौद्गलिक है। मिट्टी आदि भौतिक है और उससे निर्मित होने वाला पदार्थ भी भौतिक ही होगा। __अनुकूल आहार आदि से सुख की अनुभूति होती है और शस्त्रादि के प्रहार से दुःखानुभूति होती है। आहार और शस्त्र जैसे पौद्गलिक हैं वैसे ही सुख-दुःख के प्रदाता कर्म भी पौद्गलिक हैं। बंध की दृष्टि से जीव और पुद्गल दोनों एकमेक हैं, पर लक्षण की दृष्टि से दोनों पृथक्-पृथक् हैं। जीव अमूर्त व चेतनायुक्त है, जबकि पुद्गल मूर्त और अचेतन है। इन्द्रियों के विषय स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द ये मूर्त हैं और उनका उपयोग करने वाली इन्द्रियाँ भी मूर्त हैं। उनसे उत्पन्न होने वाला सुख दुःख भी मूर्त है, अतः उनके कारणभूत कर्म भी मूर्त हैं।५४ मूर्त ही मूर्त से बंधता है। अमूर्त जीव मूर्त कर्मों को अवकाश देता है। वह उन कर्मों से अवकाश रूप हो जाता है। जैन दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं रहा है। उसके मन्तव्यानुसार वह आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है। जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी हेती है जब जीव कर्मसम्बद्ध हो। जीव के साथ कर्म तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन, काय की प्रवृत्ति हो। इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और प्रवृत्ति के कार्य और कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म कहा और राग-द्वेषादिरूप प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा है।५६ इस तरह कर्म के मुख्य रूप से दो भेद हुए-—द्रव्यकर्म और भावकर्म । द्रव्यकर्म के होने में भावकर्म और भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म कारण है। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, इसी प्रकार द्रव्यकर्म में भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म का सिलसिला भी अनादि है।५७ ____ कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व पर चिन्तन करते समय संसारी आत्मा और मुक्त आत्मा का अन्तर स्मरण रखना चाहिए। कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का सम्बन्ध संसारी आत्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं। संसारी आत्मा कर्मों से बंधा है। उसमें चैतन्य और जड़त्व का मिश्रण है। मुक्त आत्मा कर्मों से रहित होता है, उसमें विशुद्ध चैतन्य ही होता है। बद्ध आत्मा की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण जो पुद्गल-परमाणु आकृष्ट होकर परस्पर एक दूसरे के साथ मिल जाते हैं, नीरक्षीरवत् एक हो जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं। इस तरह कर्म भी जड़ और चेतन का मिश्रण है। प्रश्न हो सकता है कि संसारी आत्मा भी जड़ और चेतन का मिश्रण है और कर्म में भी वही ५४. जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भंजदे णिययं। जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि...| -पंचास्तिकाय १४१ । ५५. पंचास्तिकाय १४२ ५६. कर्मप्रकृति—नेमिचन्द्राचार्य विरचित ६ ५७. देखिए धर्म और दर्शन, पृ. ४२ देवेन्द्रमुनि शास्त्री [२४]
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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