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सुखविपाक : प्रथम अध्ययन]
[१२७ भवित्ता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सठिं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने।
१९—तदनन्तरसुबाहु अनगार श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक आदि एकादश अङ्गों का अध्ययन करते हैं। अनेक उपवास, बेला, तेला आदि नाना प्रकार के तपों के आचरण से आत्मा को वासित करके अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय (साधुवृत्ति) का पालन कर एक मास की संलेखना (एक अनुष्ठान-विशेष जिसमें शारीरिक व मानसिक तप द्वारा कषाय आदि का नाश किया जाता है) के द्वारा अपने आपको आराधित कर साठ भक्तों भोजनों का अनशन द्वारा छेदन कर अर्थात् २९ दिन का अनशन कर आलोचना व प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि को प्राप्त होकर कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए।
विवेचन यहाँ यह शङ्का सम्भव है कि'मासियाए संलेहणाए' शब्द का उल्लेख करने के बाद 'सट्रिभत्ताई' का उल्लेख हआ है, जो २९ दिन का ही वाचक है तो 'मासियाए संलेहणाए' की अर्थस कैसे बैठेगी?
__ • हमारी दृष्टि से इसकी यह सङ्गति सम्भव है कि प्रत्येक ऋतु में मासगत दिनों की संख्या समान नहीं होती है, अत: जिस ऋतु में जिस मास के २९ दिन होते हैं उस मास को ग्रहण करने के लिए सूत्रकार ने 'मासियाए संलेहणाए' शब्द ग्रहण किया है। यह पद देकर भी 'सट्ठिभत्ताई' जो पद दिया है उससे यही द्योतित होता है कि २९ दिन के मास में ही साठ भक्त-भोजन छोड़े जा सकते हैं, ३० दिन के मास में नहीं।
___ २०–से णं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सविग्गहं लहिहिइ, लहिहित्ता केवलं बोहिं बुज्झिहिइ, बुज्झिहित्ता तहारूवाणं थेराणं अंतिए मुंडे जाव पव्वइस्सइ। से णं तत्थ बहूई वासाइं सामण्णं पाउणिहिइ, पाउणिहित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालगए सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए उव्वजिहिइ।
से णं ताओ देवलोगाओ माणुस्सं, पव्वजा बंभलोए। माणुस्सं तओ महासुक्के। तओ माणुस्सं, आणए देवे। तओ माणुस्सं, आरणे। तओ माणुस्सं, सव्वट्ठसिद्धे।
से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता महविदेहे वासे जाई अड्डाइं जहा दढपइन्ने, सिज्झिहिइ।
२०—तदनन्तर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति के क्षय होने पर व्यवधान रहित देव शरीर को छोड़कर सीधा मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा। प्राप्त करके शंकादि दोषों से रहित केवली—बोधि का लाभ करेगा, बोधि उपलब्ध कर तथारूप स्थविरों के पास मुंडित होकर साधुधर्म में प्रव्रजित हो जायेगा। वहाँ वह अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय—संयम व्रत का पालन करेगा और आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होगा। काल धर्म को प्राप्त कर सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न होगा।
वहाँ से पुनः मनुष्य भव प्राप्त करेगा। दीक्षित होकर यावत् महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न