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[विपाकसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
धर्म को अङ्गीकार करते हैं ।
वे राजा ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म - श्रवण करते हैं । सो यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वीक्रमशः गमन करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हुए, यहाँ पधारें तो मैं गृह त्याग कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुंडित होकर प्रव्रजित हो जाऊँ ।
१७ तए णं समणे भगवं महावीरे सुबाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं जाव' वियाणित्तापुव्वाणुपुव्विं जाव दूइज्जमाणे जेणेव हत्थिसीसे णयरे जेणेव पुप्फकरंडे उज्जाणे जेणेव कायवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं हं उग्गहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ |
परिसा राया निग्गया। तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स तं महया जणसद्दं वा जणसण्णिवायं वा जहा जमाली तहा निग्गओ रे । धम्मो कहिओ । परिसा राया पडिगया ।
१७—–—तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सुबाहुकुमार के इस प्रकार के संकल्प को जानकर क्रमशः ग्रामानुग्राम चिरते हुए जहाँ हस्तिशीर्षनगर था, और जहाँ पुष्पकरण्डक नामक उद्यान था, और जहाँ कृतवनमालप्रिय यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे एवं यथाप्रतिरूप अनगारवृत्ति के अनुकूल अवग्रह - स्थानविशेष को ग्रहण कर संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित हुए ।
तदनन्तर परिषदा व राजा दर्शनार्थ निकले। सुबाहुकुमार भी पूर्व की ही तरह बड़े समारोह के साथ भगवान् की सेवा में उपस्थित हुआ । भगवान् ने उस परिषद् तथा सुबाहुकुमार को धर्म का प्रतिपादन किया। परिषद् और राजा धर्मदेशना सुन कर वापिस चले गये ।
१८ – तए णं सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिर धम्मं सोच्चा निसम्म तुo जहा मेहो तहा अम्मापियरो आपुच्छइ । निक्खणाभिसेओ तहेव जाव अणगारे जाव इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी ।
१८ – सुबाहुकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म श्रवण कर उसका मनन करता हुआ (ज्ञाताधर्मकथा में वर्णित ) श्रेणिक राजा के पुत्र मेघकुमार की तरह अपने माता-पिता से अनुमति लेता है । तत्पश्चात् सुबाहुकुमार का निष्क्रमण-अभिषेक मेघकुमार ही की तरह होता है । यावत् वह अनगार हो जाता है, ईर्यासमिति का पालक यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बन जाता है।
१९ – तए णं से सुबाहू अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणां थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइँ' एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्ठट्ठमतवोवहाणेहिं अप्पाणं
१ - २ - देखिये ऊपर का १६वां सूत्र । ३. भगवती श. ९ । ४. देखिये ज्ञाताधर्मकथा, प्र.अ. ।
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सामायिक शब्द चारित्र के पंचविध विभागों में प्रथम विभाग-पहला चारित्र, श्रावक का नवम व्रत, आवश्यक सूत्र का प्रथम विभाग तथा संयमविशेष इत्यादि अनेक अर्थों का द्योतक है। प्रकृत में सामायिक का अर्थ प्रथम अङ्ग आचाराङ्ग ग्रहण करना अनुकूल प्रतीत होता है, कारण 'सामाइयमाझ्याई' ऐसा उल्लेख है और वह
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'एक्कारस अंगाई' का विशेषण है अर्थात् सामायिक है आदि में जिसके ऐसे ग्यारह अङ्ग । ग्यारह अङ्गों के नाम ये हैं—आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, उपासकदशाङ्ग, अन्तकृद्दशाङ्ग, अनत्तरोपपातिकदशाङ्ग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र ।