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सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ]
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हत्थणाउरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ ४– ' धन्ने णं देवाप्पिया ! सुमुहे गाहावई जाव गाहावई जाव ( एवं कयलक्खे णं सुलद्धे णं सुमुहस्स गाहावइस्स जम्मजीवियफले, जस्स णं इमा एयारूवा उराला माणुसिड्ढी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागता ) तं धन्ने-५ णं सुमुहे गाहावई ! '
१२ – तदनन्तर उस सुमुख गाथापति के शुद्ध द्रव्य (निर्दोष आहारदान) से तथा त्रिविध, त्रिकरण शुद्धि से अर्थात् मन वचन और काय की स्वाभाविक उदारता सरलता एवं निर्दोषता से सुदत्त अनगार के प्रतिलाभित होने पर अर्थात् सुदत्त अनगार को विशुद्ध भावना द्वारा शुद्ध आहार के दान से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए सुमुख गाथापति ने संसार को (जन्म-मरण की परम्परा को) बहुत कम कर दिया और मनुष्य आयुष्य का बन्ध किया। उसके घर सुवर्णवृष्टि, पांच वर्णों के फूलों की वर्षा, वस्त्रों का उत्क्षेप (फेंकना) देवदुन्दुभियों का बजना तथा आकाश में 'अहोदान' इस दिव्य उद्घोषणा का होना—ये पाँच दिव्य प्रकट हुए।
हस्तिनापुर के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर आपस में एक दूसरे से कहते थे हे देवानुप्रियो ! धन्य है सुमुख गाथापति ! सुमुख गाथापति सुलक्षण है, कृतार्थ है, उसने जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त किया है, जिसे इस प्रकार की यह मानवीय ऋद्धि प्राप्त हुई । वास्तव में धन्य है सुमुख गाथापति !
विवेचन—भावनाशील और सरलचेता दाता को दान देते हुए तीन बार हर्ष होता है— (१) आज मैं दान दूंगा, आज मुझे सद्भाग्य से दान देने का स्वर्णावसर उपलब्ध हुआ है, यह प्रथम हर्ष ! फिर दान देने के समय उसके रोयें-रोयें में आनन्द उभरता है, यह दूसरा हर्ष ! और दान देने के पश्चात् अन्तरात्मा में संतोष व आनन्द वृद्धिगत होता रहता है, यह तीसरा हर्ष ।
दूसरी तरह देय, दाता व प्रतिग्राहक पात्र, ये तीनों ही शुद्ध हों तो वह दान जन्म-मरण के बन्धनों को तोड़ने वाला और संसार को परित्त संक्षिप्त-कम करने वाला होता है ।
१३ – तए णं से सुमुहे ग़ाहावई बहूहिं वाससयाइं आउयं पालेइ, पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इहेव हत्थिसीसे नयरे अदीणसत्तुस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने । तए णं सा धारिणी देवी यणिज्जंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी तहेव सीहं पासइ, सेसं तं चेव जाव उप्पिं पासाए विहरइ ।
तं एवं खलु, गोयमा ! सुबाहुणा इमा एयारूवा माणुस्सरिद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया । १३ – तदनन्तर वह सुमुख गाथापति सैकड़ों वर्षों की आयु का उपभोग कर काल - मास में काल करके इसी हस्तिशीर्षक नगर में अदीनशत्रु राजा की धारिणी देवी की कुक्षि में पुत्र रूप उत्पन्न हुआ (गर्भ में आया। तत्पश्चात् वह धारिणी देवी किञ्चित् सोई और किञ्चित् जागती हुई स्वप्न में सिंह को देखती है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। यावत् उन्नत प्रासादों में मानव सम्बन्धी उदार भोगों का यथेष्ट उपभोग करता विचरता है ।
भगवान् ने कहा— हे गौतम! सुबाहुकुमार को उपर्युक्त महादान के प्रभाव से इस तरह की मानव