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________________ १२२] [विपाकसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध अब्भुढेइ, अब्भुठेत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करित्ता सुदत्तं अणगारं सत्तट्ठपयाइं पच्चुग्गच्छइ, पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, नमसइं, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयहत्थेणं विउलेणं असणपाणेणं पडिलाभिस्सामि त्ति तुढे पडिलाभेमाणे वि तुढे, पडिलाभिए वि तुढे। ११—तदनन्तर वह सुमुख गाथापति सुदत्त अनगार को आते हुए देखता है और देखकर अत्यन्त हर्षित और प्रसन्न होकर आसन से उठता है । आसन से उठकर पाद-पीठ—पैर रखने के आसन से नीचे उतरता है। उतरकर पादुकाओं को छोड़ता है। छोड़कर एक शाटिक—एक कपड़ा जो बीच में सिया हुआ न हो, इस प्रकार का उत्तरासंग (उत्तरीय वस्त्र का शरीर में न्यास) करता है; उत्तरासंग करने के अनन्तर सुदत्त अनगार के सत्कार के लिए सात-आठ कदम सामने जाता है। सामने जाकर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करता है, वंदन करता है, नमस्कार करके जहाँ अपना भक्तगृह-भोजनालय था वहां आता है। आकर अपने हाथ से विपुल अशन पान का आहार का दान दूंगा अथवा दान का लाभ प्राप्त करूंगा, इस विचार से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त होता है । वह देते समय भी प्रसन्न होता है और आहारदान के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव करता है। १२–तए णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेणं' गाहकसुद्धेणं दायकसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसार परित्तीकए, मणुस्साउए निबद्धे! गेहंसि य से इमाइं पंच दिव्वाइं२ पाउब्भूयाई, तं जहा— १. वसुहारा वुट्ठा २. दसद्धवण्णे कुसुमे निवाडिए ३. चेलुक्खेवे कए ४. आहयाओ देवदुन्दुभीओ ५. अंतरा वि य णं आगासे 'अहो दाणं अहो दाणं' घुढे य। दव्वसुद्धणं गाहगसुद्धणं दायगसुद्धणं-द्रव्यशुद्धि, ग्राह कशुद्धि और दाता की शुद्धि इस प्रकार हैं—देयशुद्धि सुमुख गाथापति द्वारा निर्दोष आहार देना, दातृ-शुद्धि-दान से पहिले, देते समय और दान देने के पश्चात् सुमुख के चित्त में आनन्द का अनुभव होना, हर्षित मन वाला होना। आदाता-ग्राहक मासक्षमण-तपोधनी सुदत्त मुनि। इस प्रकार देय दाता व आदाता की पवित्रता से दान उत्तम फल-दायी होता है। परिसमन्तात् इतः गतः इति परीतः। अपरीतः परीतीकृत इति परीतीकृत:-पराङ्मुखीकूतः अल्पीकृतं इत्यर्थः। संसार को संक्षिप्त कर देना। दिव्वाइं=१. देवता सम्बन्धी वसु-सुवर्ण और उसकी लगातार वृष्टि धारा कहलाती है। देवकृत सुवर्ण-वृष्टि को ही वसुधारा कहते हैं । २. कृष्ण, नील, पीत, श्वेत और रक्त पांच रंग पुष्पों में पाये जाते हैं । देवों द्वारा वरसाए गये ये पुष्प वैक्रिय-लब्धिजन्य हैं, अत: अचित्त होते हैं । ३. चेलोत्क्षेप–चेल-वस्त्र, उसका उत्क्षेप-फेंकना चेलोत्क्षेप कहा जाता है। ४. देवदुन्दुभिनाद-देव-दुन्दुभियों का बजना। ५. आश्चर्य उत्पन्न करने वाले दान की 'अहो दान' संज्ञा है। जिस दान के प्रभाव से आकर्षित हो देवता स्वयं ऐसा करते हों उसे अहोदान शब्द से कहना युक्तिसंगत ही है।
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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