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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विहरइ। एवं खलु गोयमा! उंबरदत्ते दारए पुरापोराणाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ।'
१६—तदनन्तर सागरदत्त सार्थवाह भी विजयमित्र की ही तरह (समुद्र में जहाज के जलनिमग्न हो जाने से) कालधर्म को प्राप्त हुआ। गंगदत्ता भी (पतिवियोगजन्य असह्य दुःख से दुखी हुई) कालधर्म को प्राप्त हुई। इधर उम्बरदत्त को भी उज्झित कुमार की तरह राजपुरुषों ने घर से निकाल दिया। उसका घर किसी अन्य को सौंप दिया।
तत्पश्चात् किसी समय उम्बरदत्त के शरीर में एक ही साथ सोलह प्रकार के रोगातङ्क उत्प्न हो गये, जैसे कि, श्वास, कास यावत् कोढ आदि। इन सोलह प्रकार के रोगातकों से अभिभूत हुआ उम्बरदत्त खुजली बावत् हाथ आदि के सड़ जाने से दुःखपूर्ण जीवन बिता रहा है।
भगवान् कहते हैं—हे गौतम! इस प्रकार उम्बरदत्त बालक अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मों का यह भयङ्कर फल भोगता हुआ इस तरह समय व्यतीत कर रहा है। उंबरदत्त का भविष्य
१७–'से णं उंबरदत्ते दारए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववजिहिइ ?'
गोयमा! उंबरदत्ते दारए बावत्तरि वासाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रमणप्पभाए पुढवीए नेरइयत्ताए उववजिहिइ। संसारी तहेव जाव पुढवी। तओ हत्थिणाउरे नयरे कुक्कुडत्तए पच्चायाहिइ। जायमेत्ते चेव गोहिल्लवहिए तत्थेव हत्थिणाउरे नयरे सेट्टिकुलंसि उववन्जिहिइ। बोहिं, सोहम्मे कप्पे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो।
१७ तदनन्तर श्री गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से पूछा—अहो भगवन् ! यह उम्बरदत्त बालक मृत्यु के समय में काल करके कहाँ जायेगा? और कहाँ उत्पन्न होगा?
भगवान् ने उत्तर दिया—हे गौतम! उम्बरदत्त बालक ७२ वर्ष का परम आयुष्य भोगकर कालमास में काल करके मरण के समय मर कर इसी रत्नप्रभा नाम प्रथम नरक में नारक रूप से उत्पन्न होगा। वह पूर्ववत् संसार भ्रमण करता हुआ पृथिवी आदि सभी कायों में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहाँ से निकल कर हस्तिनापुर में कुर्कुट-कूकड़े के रूप में उत्पन्न होगा। वहां जन्म लेने के साथ ही गोष्ठिकों—दुराचारी मंडली के द्वारा वध को प्राप्त होगा। पुनः हस्तिानपुर में ही एक श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा। वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। वहाँ से मरकर सौधर्म नामक प्रथम कल्प में जन्म लेगा। वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहाँ अनगार धर्म को प्राप्त कर यथाविधि संयम की आराधना कर कर्मों का क्षय करके सिद्धि को प्राप्त होगा सर्व कर्मों, दुःखों का अन्त करेगा।
निक्षेप उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए, अर्थात् श्रमण भगवान् महावीर ने सप्तम अध्ययन का यह अर्थ कहा है।
॥सप्तम अध्याय समाप्त।