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________________ ६०] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कप्पणीकप्पियाई करेंति, करेत्ता छण्णियस्स छागलियस्स उवणेति। अन्ने य से बहवे पुरिसा ताइं बहुयाइं अयमंसाइं जाव महिसमंसाइं तवएसु य कवल्लीसुय कंदुएसुर्य भज्जणेसु य इंगालेसु य तलेंति य भज्जेंति य सोल्लेति य, तलित्ता भज्जित्ता सोल्लेत्ता य तओ रायमग्गंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। ___ अप्पणा वि य णं से छण्णिए छागलिए तेहिं बहुविहेहिं अयमंसेहिं जाव महिसमंसेहिं सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च आसाएमाणे विहरइ। ७–उस छण्णिक छागलिक के अनेक अजों-बकरों, रोझों—नीलगायों, वृषभों, शशकों-खरगोशों, मृगविशेषों अथवा मृगशिशुओं, शूकरों, सिंहों, हरिणों, मयूरों और महिषों के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध अर्थात् सौ-सौ तथा हजार-हजार जिनमें बंधे रहते थे ऐसे यूथ, बाड़े में सम्यक् प्रकार से रोके हुए रहते थे। वहाँ जिनको वेतन के रूप में भोजन तथा रुपया पैसा दिया जाता था, ऐसे उसके अनेक आदमी अजादि और महिषादि पशुओं का संरक्षण-संगोपन करते हुए उन पशुओं को बाड़े में रोके रहते थे। - छण्णिक छागलिक के रुपया और भोजन लेकर काम करने वाले अनेक नौकर पुरुष सैकड़ों तथा हजार अजों तथा भैंसों को मारकर उनके मांसों को कैंची तथा छुरी से काट काट कर छण्णिक छागलिक को दिया करते थे। उसके अन्य अनेक नौकर उन बहुत से बकरों के मांसों तथा महिषों के मांसों को तवों पर, कड़ाहों में, हाँडों में अथवा कड़ाहियों या लोहे के पात्रविशेषों में, भूनने के पात्रों में, अंगारों पर तलते, भूनते और शूल द्वार काते हुए अपनी आजीविका चलाते थे। वह छणिक स्वयं भी उन मांसों के साथ सुरा आदि पांच प्रकार के मद्यों का आस्वादन विस्वादन करता हुआ जीवनयापन कर रहा था। ८-तए णं से छण्णिए छागलिए एयकम्मे, एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता सत्तवाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पुढवीए उक्कोसेणं दससागरोवमठिएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने। ८—उस छण्णिक छागलिक ने अजादि पशुओं के मांसों को खाना तथा मदिराओं का पीना अपना कर्तव्य बना लिया था। इन्हीं पापपूर्ण प्रवृत्तियों में वह सदा तत्पर रहता था। वही प्रवृत्ति उसकेजीवन का विज्ञान बन गई थी, और ऐसे ही पापपूर्ण कर्मों को उसने अपना सर्वोत्तम आचरण बना रखा था। अतएव वह क्लेशोत्पादक और कालुष्यपूर्ण अत्यधिक क्लिष्ट कर्मों का उपार्जन कर सात सौ वर्ष की पूर्ण आयु पालकर कालमास में काल करके चतुर्थ नरक में, उत्कृष्ट दस सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। शकट का वर्तमान भव ९-तए णं तस्स सुभद्दस्स सत्थवाहस्स भद्दा भारिया जायनिंदुया यावि होत्था। जाया जाया दारगा विणिहायमावति। तए णं से छण्णिए छागलिए चउत्थीए पुढवीए अणंतरं उव्वट्टित्ता
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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