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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. २
प्रजापति का सृष्टि-सर्जन
४९—पयावइणा इस्सरेण य कयं ति केई। एवं विण्डमयं कसिणमेव य जगं ति केइ ।
एवमेगे वयंति मोसं एगे आया अकारो वेदनो य सुकयस्स दुक्कयस्स य करणाणि कारणाणि सव्वहा सवहिं च णिच्चो य णिक्कियो णिग्गुणो य अणुवलेवनो त्ति विय एवमाहंसु असम्भावं ।
४९-कोई-कोई कहते हैं कि यह जगत् प्रजापति या महेश्वर ने बनाया है । किसी का कहना है कि यह समस्त जगत् विष्णुमय है।
किसी की मान्यता है कि आत्मा अकर्ता है किन्तु (उपचार से) पूण्य और पाप (के फल) का भोक्ता है । सर्व प्रकार से तथा सर्वत्र देश-काल में इन्द्रियां ही कारण हैं । आत्मा (एकान्त) नित्य है, निष्क्रिय है, निर्गुण है और निर्लेप है । असद्भाववादी इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में अनेक मिथ्या मान्यतामों का उल्लेख किया गया है । उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
प्रजापतिसृष्टि-मनुस्मृति में कहा है -ब्रह्मा ने अपने देह के दो टुकड़े किए । एक टुकड़े को पुरुष और दूसरे टुकड़े को स्त्री बनाया । फिर स्त्री में विराट् पुरुष का निर्माण किया। __उस विराट् पुरुष ने तप करके जिसका निर्माण किया, वही मैं (मनु) हूँ, अतएव हे श्रेष्ठ द्विजो ! सृष्टि का निर्माणकर्ता मुझे समझो ।'
मनु कहते हैं—दुष्कर तप करके प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा से मैंने प्रारम्भ से दश महर्षि प्रजापतियों को उत्पन्न किया।
उन प्रजापतियों के नाम ये हैं-(१) मरीचि (२) अत्रि (३) अंगिरस् (४) पुलस्त्य (५) पुलह (६) ऋतु (७) प्रचेतस् (८) वशिष्ठ (९) भृगु और (१०) नारद ।'
ईश्वरसृष्टि—ईश्वरवादी एक-अद्वितीय, सर्वव्यापी, नित्य, सर्वतंत्रस्वतंत्र ईश्वर के द्वारा सृष्टि का निर्माण मानते हैं। ईश्वर को जगत् का उपादानकारण नहीं, निमित्तकारण कहते हैं।
१. द्विधा कृत्त्वाऽऽत्मनो देह-मर्द्धम् पुरुषोऽभवत् ।
अर्धम् नारी तस्यां स, विराजमसृजत्प्रभुः ।। तपस्तप्त्वाऽसृजद् यं तु स स्वयं पुरुषो विराट् । तं मां वित्तास्य सर्वस्य, सृष्टारं द्विजसत्तमाः ।।
-मनुस्मृति अ. १. ३२-३३ २. अहं प्रजा: सिसृक्षुस्तु, तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
पतीन् प्रजानामसृज, महर्षीनादितो दश ।। मरीचिमत्यंगिरसौ पुलस्त्यं पुलहं ऋतुम् । प्रचेतसं वशिष्ठञ्च, भृगु नारदमेव च ॥
-मनुस्मृति प्र. १-३४-३५