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चतुरिन्द्रिय जीवों के दुख]......
नारकों को ही होती है और उनमें भी सब की नहीं-किन्हीं-किन्हीं की। ऐसी स्थिति में जिन घोर पाप करने वालों का नरक में उत्पाद होता है, वे वहाँ की तीव्र-तीव्रतर-तीव्रतम यातनाएँ निरन्तर भोग कर बहुतेरे पाप-कर्मों की निर्जरा तो कर लेते हैं, फिर भी समस्त पापकर्मों की निर्जरा हो ही जाए, यह संभव नहीं है। पापकर्मों का दुष्फल भोगते भोगते भी कुछ कर्मों का फल भोगना शेष रह जाता है। यही तथ्य प्रकट करने के लिए शास्त्रकार,ने 'सावसेसकम्मा' पद का प्रयोग किया है । जिन कर्मों का भोग शेष रह जाता है, उन्हें भोगने के लिए जीव नरक से निकल कर तिर्यंचगति में जन्म लेता है।
इतनी घोरातिघोर यातनाएँ सहन करने के पश्चात् भी कर्म अवशिष्ट क्यों रह जाते हैं ? इस प्रश्न का एक प्रकार से समाधान ऊपर किया गया है। दूसरा समाधान मूलपाठ में ही विद्यमान है। वह है-'पमाय-राग-दोस बहसंचियाई' अर्थात घोर प्रमाद, राग और द्वेष के का बहुत संचय किया गया था। इस प्रकार संचित कर्म जब अधिक होते हैं और उनकी स्थिति भी प्रायुकर्म की स्थिति से अत्यधिक होती है तब उसे भोगने के लिए पापी जीवों को तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होना पड़ता है। जो नारक जीव नरक से निकल कर तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं, वे पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं । अतएव यहाँ पंचेन्द्रिय जीवों-तिर्यंचों के दुःख का वर्णन किया गया है। किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंच मरकर फिर चतुरिन्द्रिय आदि तिर्यंचों में भी उत्पन्न हो सकता है और बहुत-से हिंसक जीव उत्पन्न होते भी हैं, अतएव आगे चतुरिन्द्रिय आदि तिर्यंचों के दुःखों का भी वर्णन किया जाएगा। चतुरिन्द्रिय जीवों के दुःख
३७–भमर-मसग-मच्छिमाइएसु य जाइकुलकोडि-सयसहस्सेहि णवहि-चरिदियाणं तहि तहि चेव जन्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखिज्ज भमंति रइयसमाणतिव्वदुक्खा फरिसरसण-घाण-चक्खुसहिया।
३७-चार इन्द्रियों वाले भ्रमर, मशक-मच्छर, मक्खी आदि पर्यायों में, उनकी नौ लाख जाति-कुलकोटियों में वारंवार जन्म-मरण (के दुःखों) का अनुभव करते हुए, नारकों के समान तीव्र दुःख भोगते हुए स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु से युक्त होकर वे पापी जीव संख्यात काल तक भ्रमण करते रहते हैं।
विवेचन–इन्द्रियों के आधार पर तिर्यंच जीव पाँच भागों में विभक्त हैं—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । प्रस्तुत सूत्र में चतुरिन्द्रिय जीवों के दुःखों के विषय में कथन किया गया है।
चतुरिन्द्रिय जीवों को चार पूर्वोक्त इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। इन चारों इन्द्रियों के माध्यम से उन्हें विविध प्रकार की पीडाएँ भोगनो पड़ती हैं। भ्रमर, मच्छर, मक्खी आदि जीव चार इन्द्रियों वाले हैं।
उच्च अथवा नीच गोत्र कर्म के उदय से प्राप्त वंश कुल कहलाते हैं । उन कुलों की विभिन्न कोटियाँ (श्रेणियाँ) कुलकोटि कही जाती हैं। एक जाति में विभिन्न अनेक कुल होते हैं । समस्त संसारी जीवों के मिल कर एक करोड़ साढे सत्तानवे लाख कुल शास्त्रों में कहे गए हैं। वे इस प्रकार