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[ प्रश्नव्याकरणसूत्र : पूर्व पीठिका
जन्म-मरणरूप भवपरम्परा का प्रधान कारण है और संवर प्रस्रवनिरोध विशुद्ध आत्मदशा - मुक्ति का मुख्य कारण है । इन दोनों तत्वों को जो यथावत् जान-बूझ लेता है, वही साधक निर्वाण - साधना सफलता का भागी बन सकता है । किन कारणों से कर्म का बन्ध होता है और किन उपायों से कर्मबन्ध का निरोध किया जा सकता है, इस तथ्य को समीचीन रूप से अधिगत किए विना ही साधना के पथ पर चलने वाला कदापि 'सिद्ध' नहीं बन सकता ।
आस्रव और संवर तत्त्व जैन अध्यात्म का एक विशिष्ट और मौलिक अभ्युपगम है । यद्यपि बौद्ध श्रागमों में भी प्रास्रव (प्रासव ) शब्द प्रयुक्त हुआ है, पर उसका उद्गमस्थल जैन आगम ही हैं । आगे पाँचों प्रस्रवों का अनुक्रम से विवरण दिया जा रहा है । तत्पश्चात् द्वितीय संवरद्वार का निरूपण किया गया है ।
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