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[प्रश्नव्याकरणसूत्र 'पढमस्स णं भंते ! सुयक्खधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अझयणा पण्णत्ता?' 'जंबू ! पढमस्स सुयक्खंधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं पंच अज्झयणा पण्णत्ता।' 'दोच्चस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स ? एवं चेव ।' 'एएसि णं भंते ! अण्हय-संवराणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ?'
तते णं अज्जसुहम्मे थेरे जंबूनामेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे जंबू अणगारं एवं वयासी'जंबू ! इणमो-' इत्यादि ।
सारांश-उस काल, उस समय चम्पानगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था, वनखण्ड था । उसमें उत्तम अशोकवृक्ष था। वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था।
चम्पा नगरी का राजा कोणिक था और उसको पटरानी का नाम धारिणी था।
उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी स्थविर आर्य सुधर्मा थे। वे जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्मन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोध-मान-माया-लोभविजेता, निद्रा, इन्द्रियों और परीषहों के विजेता, जीवन की कामना और मरण की भीति से विमुक्त, तपप्रधान, गुणप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, ब्रह्मप्रधान, व्रतप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञान-दर्शन-चारित्रप्रधान, चतुर्दश पूर्वो के वेत्ता, चार ज्ञानों से सम्पन्न, पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त, पूर्वानुपूर्वी से चलते, ग्राम-ग्राम विचरते चम्पा नगरी में पधारे । संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए ठहरे।
उस काल, उस समय, आर्य सुधर्मा के शिष्य आर्य जम्बू साथ थे। वे काश्यपगोत्रीय थे । उनका शरीर सात हाथ ऊँचा था..." (यावत्) उन्होंने अपनी विपुल तेजोलेश्या को अपने में ही संक्षिप्त-समा रक्खा था। वे आर्य सुधर्मा से न अधिक दूर और न अधिक समीप, घुटने ऊपर करके और नतमस्तक होकर संयम एवं तपश्चर्या से आत्मा को भावित कर रहे थे ।
एक बार आर्य जम्बू के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और वे आर्य सुधर्मा के निकट पहुँचे । आर्य सुधर्मा की तीन वार प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन-स्तवन किया, नमस्कार किया। फिर विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर-अंजलि करके, पर्युपासना करते हुए बोले
(प्रश्न) भंते ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने नौवें अंग अनुत्तरौपपातिक दशा का यह (जो मैं सुन चुका हूँ) अर्थ कहा है तो दसवें अंग प्रश्नव्याकरण का क्या अर्थ कहा है ?
(उत्तर)-जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने दसवें अंग के दो श्रुतस्कन्ध कहे हैं—प्रास्रवद्वार और संवरद्वार । प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाँच-पाँच अध्ययन प्ररूपित किए हैं ।
(प्रश्न)-भंते ! श्रमण भगवान् ने प्रास्रव और संवर का क्या अर्थ कहा है ? तब आर्य सुधर्मा ने जम्बू अनगार को इस प्रकार कहा