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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ.५
(२२) स्थाणु (ठ) की भाँति ऊर्ध्वकाय-कायोत्सर्ग में स्थित। (२३) शून्यगृह के समान अप्रतिकर्म, अर्थात्-जैसे सुनसान पड़े घर को कोई सजाता-संवारता
नहीं, उसी प्रकार शरीर की साज-सज्जा से रहित । (२४) वायुरहित घर में स्थित प्रदीप की तरह विविध उपसर्ग होने पर भी शुभ ध्यान में
निश्चल रहने वाला। (२५) छुरे की तरह एक धार वाला, अर्थात् एक उत्सर्गमार्ग में ही प्रवृत्ति करने वाला। (२६) सर्प के समान एकदृष्टि वाला, अर्थात् सर्प जैसे अपने लक्ष्य पर ही नजर रखता है,
उसी प्रकार मोक्षसाधना को और ही एकमात्र दृष्टि रखने वाला। (२७) आकाश के समान किसी का सहारा न लेनेवाला-स्वावलम्बी। (२८) पक्षी के सदृश विप्रमुक्त --पूर्ण निष्परिग्रह। (२९) सर्प के समान दूसरों के लिए निर्मित स्थान में रहने वाला। (३०) वायु के समान अप्रतिबद्ध-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के प्रतिबन्ध से मुक्त । (३१) देहविहीन जीव के समान बेरोकटोक (अप्रतिहत) गति वाला-स्वेच्छापूर्वक यत्र-तत्र
विचरण करने वाला। • विवेचन - इन उपमाओं के द्वारा भी साधुजीवन की विशिष्टता, उज्ज्वलता, संयम के प्रति निश्चलता, स्वावलम्बिता, अप्रमत्तता, स्थिरता, लक्ष्य के प्रति निरन्तर सजगता, आन्तरिक शुचिता, देह के प्रति अनासक्ति, संयमनिर्वाह संबंधी क्षमता आदि का प्रतिपादन किया गया है। इन उपमाओं द्वारा फलित आशय स्पष्ट है। आगे भी मुनिजीवन की विशेषताओं का उल्लेख किया जा रहा है।
पूर्व में प्रतिपादित किया गया कि साधु अप्रतिबद्धविहारी होता है। विहार के विषय में वह किसी बन्धन से बँधा नहीं होता । अतएव यहाँ उनके विहार के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख करते हुए कतिपय अन्य गुणों पर प्रकाश डाला जा रहा है
१६४-गामे गामे एगरायं णयरे गयरे य पंचरायं दूइज्जते य जिइंदिए जियपरीसहे णिन्भनो विऊ सच्चित्ता-चित्त-मीसगेहिं दव्वेहि विरायं गए, संचयानो विरए, मुत्ते, लहुए, णिरवकंखे, जीवियमरणासविप्पमुक्के हिस्संधि णिव्वणं चरित्तं धीरे काएण फासयंते सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते, णिहुए, एगे चरेज्ज धम्म ।
इमं च परिग्गहवेरमण-परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभदं सुद्धं णेयाउयं प्रकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउवसमणं ।
१६४-(मुनि) प्रत्येक ग्राम में एक रात्रि और प्रत्येक नगर में पाँच रात्रि तक विचरतारहता है, क्योंकि वह जितेन्द्रिय होता है, परीषहों को जीतने वाला, निर्भय, विद्वान् —गीतार्थ, सचित्तसजीव, अचित्त--निर्जीव और मिश्र-प्राभूषणयुक्त दास आदि मिश्रित द्रव्यों में वैराग्ययुक्त होता है, वस्तुओं का संचय करने से विरत होता है, मुक्त-निर्लोभवृत्ति वाला, लघु अर्थात् तीनों प्रकार के गौरव से रहित और परिग्रह के भार से रहित होता है। जीवन और मरण की आशा-आकांक्षा से