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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ. ४ १५०-- ब्रह्मचर्यव्रत की तीसरी भावना स्त्री के रूप को देखने के निषेध-स्वरूप है। वह इस प्रकार है-नारियों के हास्य को, विकारमय भाषण को, हाथ आदि की चेष्टाओं को, विप्रेक्षणकटाक्षयुक्त निरक्षण को, गति-चाल को, विलास और क्रीडा को, विब्वोकितअनुकूल—इष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर अभिमानपूर्वक किया गया तिरस्कार, नाटय, नृत्य, गीत, वादित-वीणा आदि वाद्यों के वादन, शरीर की प्राकृति, गौर श्याम आदि वर्ण, हाथों, पैरों एवं नेत्रों का लावण्य, रूप, यौवन, स्तन, अधर-प्रोष्ठ, वस्त्र, अलंकार और भूषण—ललाट की विन्दो आदि को तथा उसके गोपनीय अंगों को, एवं स्त्रीसम्बन्धी अन्य अंगोपांगों या चेष्टाओं को जिनसे ब्रह्मचर्य, तप तथा संयम का घात --उपघात होता है, उन्हें ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाला मुनि न नेत्रों से देखे, न मन से सोचे और न वचन से उनके सम्बन्ध में कुछ बोले और न पापमय कार्यों की अभिलाषा करे ।
इस प्रकार स्त्रीरूपविरति समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्त वाला, इन्द्रियविकार से विरत, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त-सुरक्षित होता है । चतुर्थ भावना : पूर्वभोग-चिन्तनत्याग
१५१-चउत्थं-पुत्परय-पुव्व-कोलिय-पुव्व-संगंथगंथ-संथुया जे ते आवाह-विवाह-चोल्लगेसु य तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य सिंगारागारचारुवेसाहि हावभावपललिय-विक्खेव-विलास-सालिणीहिं प्रणुकूल-पेम्मिगाहिं सद्धि अणुभूया सयणसंपनोगा, उउसुहवरकुसुम-सुरभि-चंदण-सुगंधिवर-वाम-धूवसुहफरिस-वत्थ-भूसण-गुणोववेया, रमणिज्जासोज्जगेय-पउर-णड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिग-वेलंबगकहग-पवग-लासग-प्राइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्लतुब-वीणिय-तालायर-पकरणाणि य बहूणि महरसरगोय-सुस्सराई, अण्णाणि य एवमाइयाणि तव-संजम-बंभचेर-घापोवघाइयाइं अणुचरमाणेणं बंभनेरं ण ताइं समणेण लब्भा छु, कहेउं, ण वि सुमरिलं, जे एवं पुव्वरय-पुव्वकीलिय-विरइ-समिइ-जोगेण भाविप्रो भवइ अंतरप्पा पारयमण-विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते।
१५१- (चौथी भावना में पूर्वकाल में भोगे भोगों के स्मरण के त्याग का विधान किया गया है।) वह इस प्रकार है-(गृहस्थावस्था में) किया गया रमण—विषयोपभोग, पूर्वकाल में की गई क्रीड़ाएँ-बूत आदि क्रीडा, पूर्वकाल के सग्रन्थ श्वसुरकुल-ससुराल सम्बन्धी जन, ग्रन्थ-साले आदि से सम्बन्धित जन, तथा संश्रुत—पूर्व काल के परिचित जन, इन सब का स्मरण नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त द्विरागमन, विवाह, चूडाकर्म शिशु का मुण्डन तथा पर्वतिथियों में, यज्ञोंनागपूजा आदि के अवसरों पर, शृगार के आगार जैसी सजी हुई, हाव-मुख की चेष्टा, भाव-चित्त के अभिप्राय, प्रललित लालित्ययुक्त कटाक्ष, विक्षेप ढीली चोटी. पत्रलेखा, आँखों में अंजन आदि शृगार, विलास हाथों, भौंहों एवं नेत्रों की विशेष प्रकार की चेष्टा-इन सब से सुशोभित, अनुकूल प्रेम वाली स्त्रियों के साथ अनुभव किए हुए शयन आदि विविध प्रकार के कामशास्त्रोक्त प्रयोग, ऋतु के उत्तम वासद्रव्य, धूप, सुखद स्पर्श वाले वस्त्र, आभूषण-इनके गुणों से युक्त, रमणीय आतोद्यवाद्यध्वनि, गायन, प्रचुर नट, नर्तक-नाचने वाले, जल्ल-रस्सी पर खेल दिखलाने वाले, मल्लकुश्तीबाज, मौष्टिक-मुक्केबाज, विडम्बक-विदूषक, कथा-कहानी सुनाने वाले, प्लवक-उछलने