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[प्रश्नव्याकरण सूत्र : श्रु. २. अ. ४
ब्रह्मचर्यव्रत को पाँच भावनाएँ प्रथम भावना विविक्त-शयनासन
२४८-तस्स इमा पंच भावणामो चउत्थवयस्स होंति प्रबंभचेरविरमणपरिरक्खणट्टयाए----
पढम-सयणासण-घर-दुवार-अंगण- आगास-गवक्ख-साल-अभिलोयण- पच्छवत्थुक-पसाहणगण्हाणिगावगासा, अवगासा जे य वेसियाणं, अच्छंति य जत्थ इत्थियानो अभिक्खणं मोहदोस-रइरागवड्डणीप्रो, कहिंति य कहानो बहुविहानो, ते वि हु वज्जणिज्जा । इत्थि-संसत्त-संकिलिट्ठा, अण्णे वि य एवमाई अवगासा ते हु वज्जणिज्जा।
____जत्थ मणोविन्भमो वा भंगो वा भंसणा [भसंगो] वा अझै रुदं च हुज्ज झाणं तं तं वज्जेज्जऽवज्जभीरू अणाययणं अंतपंतवासी।
एवमसंसत्तवास-वसहीसमिइ-जोगेण भाविमो भवइ अंतरप्पा, आरयमण-विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते।
१४८-चतुर्थ अब्रह्मचर्यविरमण व्रत की रक्षा के लिए ये पाँच भावनाएँ हैं
प्रथम भावना : (उनमें से) स्त्रीयुक्त स्थान का वर्जन-प्रथम भावना इस प्रकार है-शय्या, आसन, गृहद्वार (घर का दरवाजा), आँगन, आकाश-ऊपर से खुला स्थान, गवाक्ष-झरोखा, शाला-सामान रखने का कमरा आदि स्थान, अभिलोकन-बैठ कर देखने का ऊँचा स्थान, पश्चाद्गृह-पिछवाड़ा-पीछे का घर, प्रसाधनक-नहाने और शृगार करने का स्थान, इत्यादि सब स्थान स्त्रीसंसक्त-नारी के संसर्ग वाले होने से वर्जनीय हैं।
इनके अतिरिक्त वेश्याओं के स्थान-अड्डे हैं और जहाँ स्त्रियाँ बैठती-उठती हैं और वारवार मोह, द्वेष, कामराग और स्नेहराग की वृद्धि करने वाली नाना प्रकार की कथाएँ कहती हैंबातें करती हैं, उनका भी ब्रह्मचारी को वर्जन करना चाहिए। ऐसे स्त्री के संसर्ग के कारण संक्लिष्ट-संक्लेशयुक्त अन्य जो भी स्थान हों, उनसे भी अलग रहना चाहिए, जैसे-जहाँ रहने से मन में विभ्रम-चंचलता उत्पन्न हो, ब्रह्मचर्य भग्न होता हो या उसका आंशिकरूप से खण्डन होता हो, जहाँ रहने से आर्तध्यान--रौद्रध्यान होता हो, उन-उन अनायतनों-अयोग्य स्थानों का पापभीरु-ब्रह्मचारी–परित्याग करे। साधु तो ऐसे स्थान पर ठहरता है जो अन्त-प्रान्त हों अर्थात् इन्द्रियों के प्रतिकूल हो।
इस प्रकार असंसक्तवास-वसति-समिति के अर्थात् स्त्रियों के संसर्ग से रहित स्थान का त्याग रूप समिति के योग से युक्त अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की मर्यादा में मन वाला तथा इन्द्रियों के विषय ग्रहण-स्वभाव से निवृत्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त–सुरक्षित होता है । द्वितीय भावना : स्त्री-कथावर्जन
१४९–बिइयं–णारीजणस्स मज्झे ण कहियव्वा कहा-विचित्ता विब्बोय-विलास-संपउत्ता हाससिंगार-लोइयकहव्व मोहजणणी, ण आवाह-विवाह-वर-कहा, इत्थीणं वा सुभग-दुब्भगकहा,